सच में कितने पद्मापदम भाग्यवान हैं हम, जो ईश्वर से हमने मुलाकात की है, मनभावनी सी मधुर बात की है! यह समय कितना मूल्यवान है हमारे लिए, जो हमने परमात्मा को पाया है, उनको पहचाना है। जिनको हम द्वापर से पुकारते आये, आज वह हमारे सम्मुख हैं। पहले शिव बाबा ने साकार रूप में ब्रह्मा बाबा के तन का आधार ले हमें पालना दी, शिक्षाएं दी तब बापदादा अव्यक्त रूप में हमें पालना दे रहे हैं। ये वादा है बाबा का कि मैं अंत तक तुम्हें ज्ञान खजाने से भरता रहंूगा। और वह छुट्टी नहीं लेते तो भला हम कैसे लें। अब अव्यक्त बापदादा मिलन का समय आ गया है। तो क्यों न अभी से स्वयं को तैयार करें जिससे हम बिल्कुल वही परमात्म प्यार की अनुभूति करें, जिस रीति बाबा लुटाते हैं। अव्यक्त बापदादा मिलन के कुछ नियम और मर्यादायें हैं जिनको हमें पूर्ण रीति पालन करना अनिवार्य है। तब ही हम वो प्र्राप्तियां कर सकेंगे। सर्वश्रेष्ठ नियम है परमात्म ज्ञान होना। जिसने सात रोज़ का कोर्स किया है वही अव्यक्त बापदादा मिलन मना सकता है। फिर जो नित्य परमात्म महावाक्यों को सुनता हो, अमृतवेला और नुमाशाम का योग करता हो। अब परमात्म महावाक्य तो अनेक ब्राह्मण आत्माएं सुनती हैं परन्तु धारण सिर्फ कुछ ही आत्माएं करती हैं। कहने का भावार्थ यहाँ ये है कि वो आत्मा चाहिए जो सिर्फ सुनता ही ना हो परन्तु धारण भी करता हो।
पवित्रता है ब्राह्मण जीवन का फाउण्डेशन। जिसका ये फाउण्डेशन पक्का हो, कम से कम एक वर्ष का वही इस मंगल मिलन को मनाने के लिए आ सकता है। कहते भी हैं,क्रक्रजो लोग ईश्वर को पाना चाहते हैं, उन्हें वाणी, मन, इन्द्रियोंकी पवित्रता और एक दयालु हृदय की ज़रूरत होती हैञ्जञ्ज। क्योंकि भगवान की महिमा है कि वो पवित्रता के सागर हैं तो विकारों की आग में जलने वाले व्यक्ति कैसे और क्या ही उनकी अनुभूति कर सकेंगे बल्कि वो तो वायुमंडल और ही दूषित कर देंगे और उस पाप का दंड बहुत ही कड़ा होगा। इसलिए जो सिर्फ ब्रह्मचर्य को पालन ही नहीं करते हों परन्तु ब्रह्मचारी भी हो, तन और मन से। जिनमें दैवी गुणों की धारणा हों, जिसकी दृष्टि और वृत्ति पवित्र हो, जिसका भोजन शुद्ध व सात्विक हो वही परमात्म मिलन मना सकते हैं। क्योंकि भगवान से मिलन मनाना कोई साधारण बात है क्या!
अब ये नियम क्यों ज़रूरी हैं, ये जान लेना भी अति आवश्यक है। बिना सात रोज़ कोर्स के आप क्या जानेंगे कि ईश्वर कौन है, कहाँ के रहने वाले हैं! क्योंकि ज्ञान में आने से पहले तो हम यही मानते थे कि ईश्वर सर्वव्यापी है, वो नाम, रूप से न्यारे हैं, अकर्ता हैं। परन्तु अब ज्ञान में आने से हमें परमात्मा का नाम, रूप, कत्र्तव्य और रहने के स्थान का ज्ञान तो स्पष्ट हो ही गया है, साथ ही साथ ये भी स्पष्ट हो चुका है कि वह कैसे इस धरा पर अवतरित होते हैं और फिर कैसे हमें ज्ञान देेते हैं। अगर ये सब बातें किसी मनुष्य को पूर्ण रीति स्पष्ट न हों तो उसको अव्यक्त बापदादा मिलन का कोई रस आ नहीं सकता। वे सोचेंगे सामने एक टेलीविजन चल रही है जिसमें एक बुजुर्ग सी दादी बैठ कुछ सुना रही हैं। क्योंकि परमात्मा को इन स्थूल नेत्रों से तो बिल्कुल नहीं देखा जा सकता। वह कोई पीताम्बरधारी बनकर तो आते नहीं, मगर उनको दिव्य चक्षु से देखा जा सकता है अर्थात् महसूस किया जा सकता है। जैसे हवा को, करंट को, सूरज की गर्मी को हम देख नहीं सकते उसी प्रकार हम भगवान को इन नेत्रों से देख नहीं सकते क्योंकि वह अति सूक्ष्म ते सूक्ष्म हैं लेकिन महसूस कर सकते हैं।
अब ये तो हुई मोटी-मोटी धारणाएं लेकिन कुछ सूक्ष्म धारणाएं भी अभी बाकी हैं जिनका अभ्यास अगर हम अपनी दिनचर्या में शामिल कर लें तो जैसे मानो हम सहज ही उड़ती कला का अनुभव करने लगेंगे। जब-जब प्रभु मिलन की बात आती है तब-तब एक कहावत अक्सर सुनने में आती है वो है-
धर्म के नाम पर खुद को
गुलाम मत बनाओ,
खुदा से मिलना है तो
दुनिया को छोड़कर आओ।
ये सच ही है कि हमें परमात्म मिलन के लिए दुनिया से किनारा तो करना ही होगा तब ही हम प्रभु मिलन का रस ले सकेंगे। अब अगर कोई सोचे कि हम पुरानी दुनिया भी नहीं छोड़ें और परमात्म आनंद का भी रस१०० ले लेवें तो ऐसे तो वे बिल्कुल सफल नहीं हो सकते। क्योंकि आप दो नौकाओं में पैर तो यकीनन नहीं रख सकते हैं और यदि रखते भी हैं, तो आप बीच में सेचिर जाएंगे अर्थात् आप कहीं के नहीं रहेंगे। इसलिए अब पुरानी दुनिया से किनारा करने के लिए और सम्पूर्ण प्रभु मिलन का आनंद लेने के लिए हमें बीच-बीच में आत्मा का पाठ पक्का करना होगा, क्योंकि जब हम देह-अभिमानी होते हैं तो हमें देहधारी खींचते हैं और जब हम आत्म अभिमानी बनते हैं तब हमें सिर्फ परमात्मा की खींच होती हैं,ना की कोई देहधारी की। वैसे भी देह की ज़रूरतें अनेक हैं परन्तु आत्मा की ज़रूरत सिर्फ एक है और वो है परमात्मा की याद। जब तक हमारी दिल वस्तु, वैभव में अटकी होगी तब तक हमारी बुद्धि परमात्मा में लग नहीं सकती। इसलिए आप आज से ही स्वयं को बार-बार अपने आत्मिक स्वरूप में टिकाने का अभ्यास कीजिए जिससे दैवी गुणों की धारणा भी सहज होगी, वस्तु, वैभव से भी दिल स्वत: और सहज ही निकल जाएगा और आप प्रभु मिलन की मस्ती में भी झूमने लगेंगे।
ब्र.कु. उर्वशी बहन,नई दिल्ली