पुरुषार्थ बड़ा या प्रालब्ध -ब्र.कु. उर्वशी बहन,नई दिल्ली

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मनुष्य बहुत ऊंचे लक्ष्य का सपना देखता है, कुछ हद तक प्रयास भी करता है लेकिन लक्ष्य तक पहुंचने की यात्रा को बीच में ही छोड़ देता है। क्योंकि वो लक्ष्य मेहनत मांगता है, निरंतरता मांगता है और एकाग्रता भी। वो अपने फोकस से विचलित हो जाता है, और कहता है मैंने तो लक्ष्य बहुत अच्छा बनाया है, लेकिन प्रालब्ध उनसे दूर ही रह जाती है। फिर वो उदासी, उबासी, और थकान के भंवर में फंस-सा जाता है। इसीलिए मंजि़ल को प्राप्त करने के लिए मेहनत और सम्बन्धित संसाधन होना ज़रूरी है और उसमें ताल-मेल होने पर ही मंजि़ल पर पहुंच सकते हैं।

सुनते तो हम बचपन से आये हैं कि कर्म किए बिना कभी फल की प्राप्ति नहीं होती और वैसे ये सत्य भी है। एक उदाहरण से समझते हैं, आप बहुत भूखे हैं आपके आगे भोजन की थाली आई जिसमें 10 पकवान हैं,जिसका आप स्वाद तो लेना चाहते हैं और पेट भी भरना चाहते हैं, परंतु गिट्टी तोडऩा नहीं चाहते तो क्या आपको स्वाद आयेगा? आपका पेट भरेगा? यकीनन नहीं! क्योंकि आप कर्म करना नहीं चाहते परंतु फल की इच्छा रख रहे हैं। यहाँ कर्म है गिट्टी तोडऩा और फल है स्वाद चखना या भूख मिटाना। बिल्कुल ऐसा ही हमारे आध्यात्मिक जीवन में होता है क्योंकि यहाँ भी आप अपना जीवन सुख और शांति से भरपूर करने की इच्छा तो रख रहे हैं परंतु यदि आप कर्म करना नहीं चाहते तो यकीन मानिए आपको कुछ भी मिलने वाला नहीं है। देखिये अब परमात्मा स्वयं इस धरा पर आये हैं हम बच्चों को प्रालब्ध देने परंतु उनका एक ही कहना है कि मीठे बच्चे- पुरुषार्थ कर प्रालब्ध पाओ।
अब ध्यान हमें परमात्मा के इन महावाक्यों पर देना है कि उन्होंने ये नहीं कहा कि जब मैं आया हूँ तो प्रालब्ध तुम्हें मिल ही जायेगी। किन्तु उन्होंने ये कहा कि पुरुषार्थ से ही प्रालब्ध मिलेगी। अब समझना हमें ये है कि पुरुषार्थ का यथार्थ मतलब क्या है। पुरुषार्थ अर्थात् मेहनत, कर्म करना। प्रालब्ध अर्थात् फल प्राप्त करना, लक्ष्य हासिल करना, परिणाम तक पहुंचना। इसको और सरल शब्दों में हम कहें तो पुरुषार्थ है यात्रा और प्रालब्ध है मंजि़ल। क्या कभी कोई व्यक्ति बिना यात्रा किये मंजि़ल तक पहुंचा है? नहीं ना! इसलिए अब हमें कर्म करने प्रारम्भ करने चाहिए, बजाए सिर्फ विचार करके समय व्यर्थ गंवाने के या कहें सिर्फ मंजि़ल ही मंजि़ल का चिंतन करने के। इसलिए अब हमें पुरुषार्थ करना माना मेहनत करना अर्थात् कर्म करना चाहिए और पुरुषार्थ कर अपनी प्रालब्ध माना मंजि़ल अर्थात् स्वर्ग की बादशाही प्राप्त करनी चाहिए। अब मेहनत किसमें करनी है ये भी हमें ज्ञान होना चाहिए। हमें मेहनत करनी है दैवी गुण धारण करने में, जिससे फिर हम स्वर्ग के मालिक बनेंगे। लौकिक में भी ऊंच पद पाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं, तो ये तो सबसे ही ऊंचा पद है क्योंकि इसके बदले हमें राज तख्त मिलता है, तो क्या इसके लिए मेहनत नहीं करनी पड़े! कहा भी जाता है कि भाग्य मेहनत का गुलाम है।
अब बहुत से ब्राह्मण ये सोचकर दिलशिकस्त हो जाते हैं कि पता नहीं प्रालब्ध मिलेगी भी या नहीं, क्योंकि इतना समय तो बीत चुका है पुरुषार्थ करते-करते। परंतु जब ये भगवान का वायदा है कि बच्चे तुम इन दैवी गुणों की धारणा करके ही विश्व के मालिक बन सकते हो 21 जन्मों के लिए तो ज़रूर ये सत्य ही होगा ना! और वैसे एक कहावत भी मशहूर है कि जल्दी मिलने वाली चीज़ें ज्य़ादा दिनों तक नहीं चलती और जो ज्य़ादा दिनों तक चलती है, वो शीघ्र ही नहीं मिलती। इसलिए अब हमें ये पक्का कर लेना है कि जब तक हम जीवित हैं तब तक हमें पुरुषार्थ करना ही है। पुरुषार्थ करेंगे तो प्रालब्ध स्वत: मिल ही जाएगी, क्योंकि ऐसा कोई कर्म नहीं जिसका कोई फल ही न मिलता हो, फल या तो अच्छा या बुरा मिलता ज़रूर है लेकिन अपने कर्म के अनुसार।

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