हमारे व्यवहार या कर्म-व्यापार में कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें हम ”छोटी-छोटी” बातें कह कर चला देेते हैं। हम उन्हें सुधारने पर ध्यान ही नहीं देते क्योंकि उनके महत्त्व का हमें एहसास ही नहीं होता। किसी भी आदत के कारणों या परिणामों की गम्भीरता जाने बिना तो हम उसे ठीक करने का दृढ़ संकल्प करते ही नहीं और दृढ़ संकल्प न करने से वह आदत ठीक नहीं हो पाती। परंतु हमें सोचना चाहिए कि जिन्हें हम ”छोटी-सी आदत” कहते हैं, वह वास्तव में छोटी नहीं होती; वह केवल ऊपर-ऊपर से या बाहर ही से छोटी दिखाई देती है।
उसके नीचे या भीतर तो कई अन्य त्याज्य(छोडऩे योग्य) आदतें छिपी होती हैं। जैसे हमें बताया जाता है कि ग्लेशियर (बर्फ की चट्टान) जल से ऊपर तो थोड़ा-सा ही दिखाई देता है परंतु नदी या ”हिम नदी” में उसका पहाड़-जितना भाग तो अपने ही भार के कारण छिपा रहता है, वैसे ही ‘छोटी-सी आदतें’ भी बाहर से छोटी दिखाई देती हैं, उनके भीतर या नीचे तो पहाड़-जितना विशाल रूप छिपा होता है। कैंसर रोग के बारे में भी यही बताया जाता है कि ऊपर तो छोटा-सा दाना ही दिखायी देता है परंतु उसके नीचे, शरीर के अंदर, उसकी जड़ें दूर-दूर तक फैली हुई होती हैं कि एक दिन वह सारे मनुष्य को ही दबोच लेता है। वह ”दाना” ”दाना” नहीं रहता बल्कि सारे शरीर को ही अपने लपेट में लेकर उसे विषैला, निकम्मा और पीड़ाजनक बना देता है।
उदाहरण के तौर पर देर करने ही की आदत को ले लीजिये। यदि किसी व्यक्ति को पाँच सौ व्यक्तियों के सामने भाषण करना हो अथवा सौ-दो सौ- व्यक्तियों के सामने भाषण करना हो और वहाँ देर से पहुँचे तो उसके इस अलबेलेपन के परिणाम स्वरूप सैकड़ों लोगों का समय व्यर्थ जायेगा। वे उसी के इंतज़ार में बैठे रहेंगे। हो सकता है उनका मन भी उद्विग्न(परेशान) हो उठेगा कि वक्ता क्यों नहीं आया है, यह तो ठीक आदत नहीं है। अत: उनका समय व्यर्थ करने के अतिरिक्त उनकी स्थिति को भी बिगाडऩे का निमित्त से अधिक बनना एक बड़ी भूल है। यदि ऐसी भूल करने वाला क्षमा नहीं मांगता तो एक से अधिक भूल करता है और यदि क्षमा मांगता है तब एक तो वह लोगों के ध्यान को और अधिक अपने दुर्गुण या अपनी परेशानी की ओर आकर्षित करके उनका और समय नष्ट करता है और यदि क्षमा मांगते हुए भी उसके मन में प्रायश्चित्त नहीं है अथवा भूल का गहरा एहसास नहीं है तो और अधिक भूल करता है और यदि सचमुच में प्रायश्चित्त भाव है तो अपनी स्थिति को भी असंतुष्टता की स्थिति पर उसे लाना पड़ता है। फिर, इसके बाद भी यदि वह देर से पहुँचने की आदत बनाये रखता है, फिर तो आप सोच ही सकते हैं कि लोग भी उसके विषय में क्या सोचेंगे और वह भी अपने बारे में क्या सोचेगा!
जब रेलगाड़ी देर से पहुँचती है तो कितने लोगों को हानि होती है। जिन्हें सम्बन्धित गाड़ी लेनी होती है, उनकी वह गाड़ी छूट जाती है और दूसरी गाड़ी में उनका स्लीपर बर्थ आरक्षित नहीं होता और सारा दिन स्टेशन पर बैठना या किसी होटल में धक्का खाना पड़ता है। खर्च भी होता, समय भी व्यर्थ होता है, आगे जहाँ पहुँचना हो वहाँ नहीं पहुँच पाते और कार्य में विघ्न उपस्थित होता है। हरेक यात्री की अपनी समस्या होती है और गाड़ी के देर से पहुँचने के कारण उन्हें न जाने क्या-क्या परेशानी होती है और उनके मन पर क्या बीतती है।
यदि अस्पताल में डॉक्टर किसी ऐसे रोगी की ओर ध्यान देने में देर करे जिसका खून बह रहा हो या जिसे हृदय पीड़ा हो रही हो या जो चोट के दर्द से अत्यन्त दर्द की स्थिति में हो तो क्या परिणाम होगा? रोगी या घायल व्यक्ति के जीवन का प्रश्न होता है, ऑक्सीजन का सिलेण्डर दो मिनट देर से आने पर रोगी की मृत्यु हो सकती है। सोचिये कि देर कितनी खतरनाक है!
किसी ऐसे व्यक्ति से पूछकर देखिये जिसके मकान को कभी आग लगी थी और बार-बार फोन करने पर अग्नि शामक दस्ता केवल पाँच ही मिनट देर से पहुँचा था परंतु इतने में ही अग्नि काबू से बाहर हो गयी थी और लाखों रूपये का मकान, उसमें पड़ी नकदी, कीमती फर्नीचर, ज़रूरी कागज़ और अन्य सैकड़ों उपयोगी वस्तुयें जिन्हें जीवन-भर की कमाई से ही नहीं बल्कि बुज़ुर्गों से प्राप्त जायदाद आदि तथा सहायता से जुटाया था, सब भस्मसात हो गये! उस व्यक्ति के मन में पाँच मिनट का कितना मूल्य होगा! संसार में कितनी ही लड़ाइयाँ इसलिये हारी गयीं कि फौज देरी से पहुँची। अत: हमें समझना चाहिए कि कुछ मिनट की देर कोई छोटी-सी बात नहीं है। मनुष्य का जीवन ही छोटा-सा है, यदि उसमें से कुछ-कुछ मिनट कुतर-कुतर कर निकालते जायें तो बाकी रह ही कितना समय जायेगा!
विशेष तौर पर जो शिक्षक या शिक्षिकायें हैं, उन पर तो यह बात बहुत लागू होती है। यदि वे ही अपनी कक्षा में देर से पहुंचेेंगे तो बच्चे उनसे क्या सीखेंगे? न केवल उनके प्रारम्भिक जीवन का वह अनमोल अध्ययन काल व्यर्थ जायेगा बल्कि उनके चरित्र में भी यह दोष आ जायेगा। परंतु केवल शिक्षक ही क्यों, हर व्यक्ति यदि अपना कार्य ठीक समय पर नहीं करेगा तो उसके परिणामस्वरूप अनेकानेक को हानि होगी और उसका भारी पाप उसके सिर पर लदेगा। हर कार्य को देर से करने की जो आदत पड़ जाती है, वह तो क्रमहादोषञ्ज है। उससे तो बहुत ही हानि होती है।”ढिल्लम प्रसाद” बनकर कार्य करता है, वह जीवन में कितना कार्य कर पायेगा, वह तो मटक-मटक कर और अटक-अटक कर ही चलता रहेगा और किसी दूरस्थ मंजि़ल पर तो जीवन भर भी नहीं पहुँच सकेगा। यदि चाँद पर जाने के लिये रॉकेट न बनाये जाते तो अपनी चहलकदमी (धीरे-धीरे चलने की क्रिया) से, पद यात्रा से, बैलगाड़ी से या गधे और खच्चर की सवारी से क्या मनुष्य कभी चाँद पर पहुँच पाता?
इस प्रकार जिसका स्वभाव ही देर से कार्य करना हो जाता है, वह तो अपने आध्यात्मिक पुरूषार्थ में भी अपनी मंजिल पर ठीक समय पर नहीं पहुँच पाता अथवा अपने उच्च लक्ष्य को प्राप्त ही नहीं कर पाता। अत: विशेषकर आध्यात्मिक पुरूषार्थ में तो देर से कार्य करने की आदत की इतनी बड़ी हानि है जिसका हिसाब ही नहीं क्योंकि वह तो अपनी इस आदत के कारण हर संस्कार को बदलने में देर करेगा और इस प्रकार अपने पूरे संस्कार बदल ही नहीं पायेगा या संस्कारो को बदलने का कार्य पूरा ही नहीं कर पायेगा।