कर्म करनेे समय कर्म में तो लग जाते और धारणा पूरी नहीं होती, तो इसको क्या कहा जायेगा? लोगों को कहते हो- धर्म और कर्म को अलग करने के कारण आज की जीवन व परिस्थितियां ऐसी हो गई हैं। तो अपने आप से पूछो कि धर्म और कर्म अर्थात् धारणायें और कर्म, दोनों की समानता रहती है व कर्म करते फिर भूल जाते हो? जब कर्म समाप्त होता तब धारणा स्मृति में आती है। जब बहुत कर्म में बिज़ी रहते हो, उस समय इतनी धारणा भी रहती है व जब कार्य हल्का होता है तब धारणा भारी होती है? जब धारणा भारी है तो कर्म हल्का हो जाता है? तराजू का दोनों तरफ एक समान चलता रहे तब तराजू का मूल्य होता है। नहीं तो तराजू का मूल्य ही नहीं। तराजू है बुद्धि।
बुद्धि में दोनों बातों का बैलेन्स ठीक है तो उनको श्रेष्ठ बुद्धिवान व दिव्य बुद्धिवान, तेज बुद्धिवान कहेंगे। नहीं तो साधारण बुद्धि। कर्म भी साधारण, धारणायें भी साधारण होती हैं। तो साधारणता में समानता नहीं लानी है लेकिन श्रेष्ठता में समानता हो। जैसे कर्म श्रेष्ठ वैसी धारणा भी श्रेष्ठ। कर्म धारणा अर्थात् धर्म को मर्ज ना कर दे, धारणा कर्म को मर्ज न करे तो धर्म और कर्म दोनों ही श्रेष्ठता में समान रहें- इसको कहा जाता है धर्मात्मा। धर्मात्मा कहो व महान आत्मा व कर्मयोगी कहो, बात एक ही है। ऐसे धर्मात्मा बने हो? ऐसे कर्मयोगी बने हो? ऐसे ब्लिसफुल बने हो? एकान्तवासी भी और साथ-साथ रमणीकता भी इतनी ही हो। कहाँ एकान्तवासी और कहाँ रमणीकता! शब्दों में तो बहुत अन्तर है, लेकिन सम्पूर्णता में दोनों की समानता रहे। जितना ही एकान्तवासी उतना ही फिर साथ-साथ रमणीकता भी होगी।
एकान्त में रमणीकता गायब नहीं होनी चाहिए। दोनों समान और साथ-साथ रहें। आप जब रमणीकता में आते हो तो कहते हो अन्तर्मुखता से नीचे आ गये और अन्तर्मुखता में आते हो तो कहते हो आज रमणीकता कैसे हो सकती है? लेकिन दोनों साथ-साथ हों। अभी-अभी एकान्तवासी, अभी-अभी रमणीक। जितनी गम्भीरता उतना ही मिलनसार भी हों। ऐसे भी नहीं, सिर्फ गम्भीरमूर्त हों। मिलनसार अर्थात् सर्व के संस्कार और स्वभाव से मिलने वाला। गम्भीरता का अर्थ यह नहीं कि मिलने से दूर रहें। कोई भी बात अति में अच्छी नहीं होती है।
परमात्म ऊजा
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