चरित्र का विकास बाल्यकाल से ही होता है

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एक महान व्यक्ति थे ईश्वर चन्द्र। उनके जीवन में उनकी माता का बहुत बड़ा योगदान था। जब वे छोटे थे तब उनके घर के पास एक व्यक्ति बहुत गंभीर हालत में पड़ा हुआ था। उसके पास ना खाने को पैसा था न ही अपने इलाज के लिए कुछ था। उस वक्त ईश्वर के पास उस गरीब की सहायता हेतु कुछ नहीं था। वे दौड़ कर अपनी माँ के पास गये,लेकिन माँ के पास भी इलाज के लिए देने को कुछ नहीं था। तब माँ ने अपने आभूषण निकाल पुत्र के हाथों में रखे और कहा बेटा इन्हें बेचकर उस रोगी की मदद करो। तब पुत्र ने कहा, माँ ये आभूषण तो तुम्हारी माँ ने दिए थे। ये तुम पर बहुत अच्छे भी लगते हैं और तुम्हें प्रिय भी हैं। तब ईश्वर की माँ ने उसे समझाया, यह आभूषण देह की शोभा बढ़ाते हैं लेकिन किसी ज़रूरतमंद के लिए किया गया कार्य, मन और आत्मा की शोभा बढ़ाता है। तू ये आभूषण ले जा एवं उस रोगी का उपचार कर। जब तू बड़ा होगा तब मुझे यह आभूषण बनवा देना।
कई सालों बाद, जब ईश्वर अपनी पहली कमाई लाया तब उसने अपने माँ के आभूषण बनवा दिए और कहा- माँ आज तेरा कर्ज पूरा हुआ। तब माँ ने कहा बेटा मेरा कर्ज जब पूरा होगा तब मुझे किसी ज़रूरतमंद के लिए आभूषण नहीं देने होंगे,संसार के सभी लोग संपन्न होंगे। तब ईश्वर ने अपनी माँ को वचन दिया, माँ अब से मेरा पूरा जीवन ज़रूरतमंदों के लिए समर्पित होगा। तब से ही ईश्वर ने अपना सम्पूर्ण जीवन दीन-दुखियों के लिए समर्पित किया और उनके कष्ट कम करने में बिता दिया।

शिक्षा: चरित्र का विकास बाल्यकाल की शिक्षा से ही होने लगता है। अत: सदैव अपने बच्चों को सही-गलत का पाठ सिखायें। जो वे बचपन में सीखते हैं उसी से उनका भविष्य बनता है।

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