सुखी जीवन का सूत्र

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पुराने समय में एक संत अपने शिष्यों के साथ धर्म प्रचार करने के लिए यात्रा कर रहे थे। इस दौरान में अलग-अलग जगहों पर रूकते और लोगों को उपदेश देते थे। एक दिन वे ऐसी जगह पहुंचे जहाँ कुछ निर्माण कार्य चल रहा था।
संत उस जगह पर पहुंचे तो वहाँ कई मजदूर पत्थरों को तराश रहे थे। एक मजदूर से संत ने पूछा कि यहाँ क्या बन रहा है? वह मजदूर गुस्से में था। उसने जोर से कहा कि मुझे नहीं मालूूम,आगे जाओ बाबा। संत वहाँ से आगे बढ़ गए। वे दूसरे मजदूर के पास पहुंचे। उससे भी संत ने पूछा कि यहाँ क्या बनेगा?
दूसरे मजदूर ने कहा कि गुरूजी मुझे इस बात से क्या मतलब, यहाँ कुछ भी बने। मैं यहाँ सिर्फ मजदूरी के लिए काम कर रहा हूँ। दिनभर काम करने के बाद शाम को पैसे मिल जाते हैं।
संत वहाँ से आगे चल दिए। अब वे एक और मजदूर के पास पहुंचे। तीसरे मजदूर से भी संत ने यही पूछा कि इस जगह पर क्या बन रहा है?
तीसरे मजदूर ने संत को प्रणाम किया और बोला कि गुरूजी यहाँ मंदिर बन रहा है। गांव में मंदिर नहीं था। अब पूजा करने के लिए दूसरे गांव नहीं जाना पड़ेगा।
संत ने उससे फिर पूछा कि क्या तुम्हें इस काम में खुशी मिलती है?
मजदूर बोला कि मंदिर बनने से मैं बहुत खुश हूँ। मुझे इस काम में बहुत आनंद मिलता है। छेनी-हथौड़ी की आवाज़ में मुझे संगीत सुनाई देता है।
ये बात सुनकर संत ने अपने शिष्यों से कहा कि यही सुखी जीवन का सूत्र है। जो लोग अपने काम को बोझ मानते हैं, वे हमेशा दु:खी रहते हैं और जो लोग अपने काम को प्रसन्न होकर करते हैं वे हमेशा सुखी रहते हैं। अगर हम अपना नज़रिया बदल लेंगे तो जीवन में सुख-शांति के साथ ही सफलता भी मिल सकती है।

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