शांति का संसार, रच रहे स्वयं परमात्मा शिव निराकार

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धर्म की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। धर्म चला गया धर्म पिताओं के पास, राज चला गया राजाओं के पास। हमारे अति वंदनीय धर्म पिताओं ने अपने समय में धर्म को संभाला, धरती को कुछ दिन थमाया, सबको पवित्र रहने में मदद की। धर्म की ग्लानि कब हुई, जब हम धर्म को भूलने लगे। यहाँ भूलने का अर्थ या भाव, बदलने से है। आत्मिक भाव से शारीरिक भाव और हम गिरते चले गये। हर धर्म अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को निकृष्ट जताने लगे। कौन उठायेगा… कौन उठायेगा हमें इस शारीरिक धर्म से ऊपर… मनुष्य तो लड़ ही रहे हैं। एक ही आसरा है, एक ही सहारा है, जो ऐसे घोर कलियुग में मनुष्य की बुद्धि को पलट सकता है- वो है परमात्मा, वो है भगवान, वो है ईश्वर!

लड़ाई शुरू होती है एक भाव से, जो हम सभी अच्छे से जानते हैं। वो भाव है शारीरिक। जब हम खुद को शरीर के धर्मों के साथ जोडऩे लगे, वहीं से सारी आपसी खाई शुरू हुई। और ये इतनी गहरी खाई है जिसको पाटना आसान नहीं। सब उस गर्त में गिरते चले जा रहे हैं। किसी के धर्म की स्थापना का आधार मनुष्य का आपसी प्रेम, सद्भाव तथा सच्चे दिल की समीपता है। मानसिक स्तर पर इन चीज़ों का पूर्णत: अभाव हमें वो सोचने पर मजबूर कर रहा है जो हम करना नहीं चाहते। ज़मीनी हकीकत मनुष्य की यही है कि वो करना नहीं चाहता फिर भी कर रहा है, क्योंकि उसे सही राह दिखाई नहीं दे रही।
ग्लानिर्भवति भारत का अर्थ सही मायने में यही तो है कि जो भारत पहले सोने की चिडिय़ा, आर्यावर्त, देव भूमि के टाइटल से नवाज़ा जाता था। आज उसे क्या हमें ये टाइटल दे सकते हैं? शायद नहीं। क्योंकि मनुष्य की स्थिति आज दयनीय है। वो सिर्फ कागजीय स्तर पर अपने आप को भारत की महिमा करने के लिए ये सारे शब्द यूज़ कर सकता है लेकिन उसमें अपने आपको फिट नहीं कर पाता है। इस हिचक के कई कारण हो सकते हैं। या तो हम सिर्फकहने के लिए कह देते हैं कि जब-जब सृष्टि पर धर्म की ग्लानि होती है तो परमात्मा आते हैं, लेकिन फिर लगता है कि यहां परमात्मा कैसे आ सकते हैं! या फिर ये लगता है कि संसार में कब से इतना सबकुछ बुरा तो हो ही रहा है, पर परमात्मा आते ही कहाँ हैं! या फिर ये कि जब धरती पर असुर होंगे तब भगवान आयेंगे उनसे मुक्ति दिलाने, अभी तो मनुष्य रहते हैं! या फिर हमने शास्त्रों से ये भी सुना है कि कलियुग अभी तो बच्चा है, अभी तो 40 हज़ार वर्ष पड़े हैं, उसके अंत के समय परमात्मा आयेंगे या अपनी प्रेरणा से ही सृष्टि परिवर्तन का कार्य कर देंगे।

आज से है…
इन पंक्तियों का ताल्लुक

यदि आप इन पंक्तियों को अपने जीवन के साथ जोड़कर देखें तो आप आज के समय, काल और परिदृश्य से भलिभांति परिचित हो पायेंगे और समझ पायेंगे कि यही सही समय है परमात्मा के इस धरा पर अवतरित होने का। आज हम भारत तो क्या, विश्व के किसी कोने पर भी नज़र डालें तो कहीं हमें अपने आंसुओं को छिपाते लोग, तो कहीं एक-दूसरे को सताते लोग, कहीं विनाश की तैयारी करते लोग, तो कहीं किसी का सबकुछ छीन लेने की होड़ में लगे लोग ही नज़र आते हैं। घर टूटते जा रहे हैं। पहले जानवरों से भय लगता था, आज एक मनुष्य ही दूसरे मनुष्य के भय का कारण बन गया है। जानवर तो शायद हमारी मदद भी कर दें! लेकिन इंसान रूपी जानवर से कौन बचाये!
आज किसी के पास किसी के लिए समय नहीं। आप स्वयं को ही देख लें। एरोप्लेन से शहर और देश तो नज़दीक आ गए पर दिलों में उतनी ही दूरियां होती चली गईं। और इन सबके साथ प्रकृति की स्थिति को भी हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। आज चारों ओर प्रकृति विनाश लीला दिखा रही है। कहीं बाढ़, कहीं सूखा, कहीं भूकंप, कहीं कितनी ही प्रकार की दुर्घटनाएं, ये सब क्या हैं? ये प्रकृति के उस दर्द का परिणाम है जो हम मनुष्यों ने ही उसे दिया है। वो भी त्राहि-त्राहि कर परमात्मा से अपने परिवर्तन का आह्वान कर रही है। और यदि हम मनुष्य दर्द देना ही जानते हैं तो हम मनुष्य नहीं, इंसान नहीं, हममें हैवान का ही वास है। इस हैवानियत को दूर करना आज मनुष्य के वश की बात तो रही ही नहीं। तब भला इससे कौन निजात दिला सकता है? सोचने पर सबकी अंगुली ऊपर जाती कि ये काम तो ऊपर वाले के सिवा कोई कर नहीं सकता। ऐसा ही है ना!
तो हममें से अवगुणों को निकाल पुन: पुरुषोत्तम बनाने, यानी उत्तम पुरुष बनाने ही निराकार शिव परमात्मा इस धरा पर अवतरित होते हैं। इस घोर कलियुग में चहुं ओर व्याप्त अज्ञान रूपी अंधकार से निकाल ज्ञान के प्रकाश दे मनुष्य आत्माओं में देवत्व जगाने के लिए परमात्मा के अवतरण की याद में ही शिवरात्रि का पर्व इतनी धूमधाम और विधि-विधान से हम मनाते आ रहे हैं। वे अवतरित होकर इस पतित, कलियुगी, पुरानी सृष्टि को परिवर्तित कर नई स्वर्णिम, सतयुगी, देवताई सृष्टि बनाने का कार्य कर रहे हैं।

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