यदि मुझ से कोई पूछे कि संसार की सबसे अद्भुत वस्तु कौन-सी है, तो मैं उसका उत्तर एक ही शब्द में दूँगा। वह शब्द हैं ‘आत्मा’ अथवा ‘परमात्मा’। अन्य लोगों से यदि यही प्रश्न किया जाये तो शायद उनमें से कई ताजमहल(आगरा) को, कोई ‘चीन की दीवार’ को और कई अन्य किसी वस्तु अथवा विज्ञान के आविष्कार का नाम लेंगे। परन्तु मैं इस सृष्टि में आत्मा ही को सबसे अधिक अद्भुत और विचित्र मानता हूँ क्योंकि इस संसार में मनुष्य अथवा अन्य किसी चैतन्य सत्ता से बनाई गई जो बहुत ही अद्भुत वस्तुएँ हैं उनका भी रचयिता तो आत्मा ही है। वस्तु के स्थूल निर्माण से भी पूर्व तो उसकी रूप-रेखा आत्मा ही में जाग्रत होती है। आत्मा ही उस संकल्प को प्रकृति रूपी सामग्री का आधार लेकर मर्त रूप देती है। अत: संकल्प, विवेक, निश्चय, स्मृति, धारणा, ध्यान, कल्पना इत्यादि शक्तियाँ जो ही आत्मा की चैतन्यता की परिचायक हैं, अति विचित्र हैं। क्योंकि इन्हीं से सब वस्तुओं की रचना हुई है। इसलिए गीता के भगवान भी आत्मा को आश्चर्यवत् बताते हुए कहते हैं कि:
”आश्चर्यवत् पश्यति कश्चित एनम्…” अर्थात् आत्मा के विषय में जो चर्चा है, लोग उसे आश्चर्यवत सुनते-देखते और कहते हैं।
आत्मा की योग्यताओं-शक्तियों का महत्व
ऊपर आत्मा जो कई एक योग्यताएँ शक्तियाँ बताई गई हैं, उन्हों के कारण आत्मा अद्भुत कही गई है, उन्हीं का ठीक प्रयोग, सदुपयोग ही आत्मा का पवित्र होना महात्मा होना है। इन्हीं शक्तियों अथवा योग्यताओं के नियंत्रण, शोध अथवा मार्गान्तरीकरण से आत्मा जीवनमुक्ति को प्राप्त करती है और इन्हीं के विकृत, कुण्ठित, पथभ्रष्ट, निकृष्ट होने से आत्मा दु:खी और अशान्त होती है क्योंकि यही तो समन्वित रूप में आत्मा की सत्ता अथवा स्वरूप है। अत: आत्मा के शुद्ध संकल्पों, सद्विवेक, सत्य-निश्चय, ईश्वर-स्मृति इत्यादि को जानना ही आत्मा के स्वरूप को जानना है और परमात्मा के विवेक यानी ज्ञान को जानना ही परमात्मा को जानना है। यह जानने से आत्मा स्वरूप-स्थित हो जाती है, अपनी गँवाई हुई शक्तियाँ अथवा योग्यताएं पुन: प्राप्त कर लेती है और परमात्मा के स्वरूप, गुण, कर्म इत्यादि के ज्ञान द्वारा अपनी समृति को उसमें निष्ठ करने से दैवी गुणों वाली हो जाती है।
संकल्प-विवेक इत्यादि क्या हैं?
परन्तु संकल्पों, विवेक, निश्चय, धारणा, स्मृति, ध्यान इत्यादि की शुद्धि क्या है, इसको जानने से पूर्व तो यह जानना आवश्यक है कि यह है क्या वस्तुएं। यूँ तो ऊपर इन योग्यताओं अथवा शक्तियों का जो महत्व-दर्शन कराया गया है, उससे भी सिद्ध है कि ये स्वयं आत्मा ही की आत्मीयता है। परंतु कई देह-अभिमानी और मिथ्या-ज्ञानाभिमानी लोग इन्हें प्र्रकृतिकृत सत्ता मानते हैं। अत: थोड़ा स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि ये प्रकृतिकृत सत्ताएं नहीं हैं।
क्या मन-बुद्धि इत्यादि प्रकृतिकृत नहीं?
जो लोग मन इत्यादि को आत्मा से अलग, सूक्ष्म प्रकृति का बना मानते हैं, वह अपने मत को कई उदाहरणों से स्पष्ट करना चाहते हैं। वह कहते हैं— ‘आपने देखा होगा कि कई बार सोये हुए आदमी की आँखें खुली होती हैं। परन्तु सुषुप्ति में होने के कारण, वह मनुष्य, आँखें खुली होने पर भी आँखों के सामने की वस्तुओं को नहीं देखता। इसी प्रकार, जब कोई मनुष्य पूर्णतया प्रभु-मनन में तल्लीन होता है, वह भी अपनी खुली आँखों के सामने से गुजरने वाले व्यक्तियों अथवा पदार्थों की ओर आकृष्ट नहीं होता। अत: अब सोचना यह है कि आत्मा के उपस्थित होते हुए और आँखें भी खुली होते वह कौन-सा साधन रूप तीसरा पदार्थ है जिसका प्रयोग न करने के कारण मनुष्य आँखों से देखने का काम नहीं ले सकता। वह साधन ‘मन’ है। क्योंकि वह आत्मा और आँख इत्यादि इन्द्रियों से पृथक है, अत: वह प्रकृतिकृत परन्तु सूक्ष्म है।’
परंतु उन लोगों के(ऊपर दिए गए) उदाहरण पर यदि आप विचार करेंगे तो आप देखेंगे कि उनकी मान्यता सत्य नहीं। बात यह है कि ‘मन'(जो कि यहाँ स्वयं आत्मा ही का ध्यान अथवा अवधान नाम की योग्यता-शक्ति का पर्यायवाची है) एक समय एक ही व्यक्ति, पदार्थ अथवा क्रिया में तल्लीन हो सकता है, एक ही बात पर विचार कर सकता है, एक ही विषय का मनन अथवा रसास्वादन कर सकता है।
अत: प्रभु-मनन में अथवा परमात्मा के ध्यान में जिस व्यक्ति का उदाहरण ऊपर दिया गया है, उस ही से स्पष्ट है कि उसका मन प्रयुक्त तो हो रहा है परन्तु वह इन्द्रियों द्वारा ग्रह्य वस्तुओं से भिन्न किसी सत्ता पर एकाग्र होने के कारण, आँखों के खुला होने पर भी आँखों के विषय को ग्रहण नहीं कर पा रहा। स्पष्ट है कि ‘मन’ यहाँ स्वयं आत्मा ही के ध्यान, अवधान, मनन, चिन्तन इत्यादि की योग्यता एवं शक्ति है। अत: मन नाम को कोई प्रकृतिकृत पदार्थ आत्मा से भिन्न मानना, मन को न जानने ही के कारण है।




