इंसान बहुत जल्दी संग के रंग में अन्धकार में आ जाता है। पवित्रता क्या है, उसे यह पता ही नहीं है। अपवित्रता क्या है? पता नहीं है क्योंकि कलियुगी अन्धियारा है। पवित्र इतने बनें जो हमारे पाप कटें, पुण्य आत्मा बनें। इतना पवित्रता का बल चाहिए। जैसे कोई-कोई कीड़ा अच्छे को भी खराब कर देता है और भ्रमरी बुरे को अच्छा बना देती है। तो कभी किसी को बुरा देखना यह भ्रमरी का काम नहीं है, ब्राह्मणी का काम नहीं है। बदलना उसका काम है, औरों को बदलने में मदद करना उसका काम है। हमारे पास इतनी शुभ भावना शुभ कामना हो जो हमारे लिए अगर कोई अशुभ सोचे तो भी वो हमें लगेगा नहीं क्योंकि हरेक के लिए शुभ भावना का भण्डारा भरपूर है।
हमारे प्रति कोई कैसे भी सोचता है, आपेही ठीक हो जायेगा। कोई बड़ी बात नहीं है, पर हम अपनी शुभ भावना में कोई कमी नहीं करेंगे। यह हमारे लिए शान नहीं है। शान यह है हम अपनी भावनाओं को सदैव सबके लिए बाबा जैसी शुभ बनायें। सबके प्रति श्रेष्ठ कामना हो, कोई स्वार्थ न हो। वह आत्मा जैसे बाबा की दृष्टि से बदल जाए, यह कामना है। बाकी हम क्या दृष्टि देंगे। जैसे बाबा दृष्टि देता है तो तुम बाबा से दृष्टि लो- यह भावना है। हम दृष्टि नहीं देंगे, जैसे बाबा मेरे को दृष्टि से चला रहा है, ऐसे आप भी बाबा की दृष्टि में रहो तो आपके ऊपर किसकी नज़र नहीं पड़ेगी। न आपकी नज़र औरों पर पड़ेगी।
अगर भोजन पर किसी की खराब नज़र पड़ जाती है तो वह खाना हम नहीं खा सकते क्योंकि उसमें इच्छा होगी, कोई भी निगेटिविटी होगी तो उसका प्रभाव शरीर को बीमार कर देगा इसलिए बाबा हमेशा कहते हैं बच्चे भोजन का भोग लगाके फिर खाओ और पहले सब खायें, फिर तुम खाओ, यह सभ्यता भी यहाँ बाबा सिखा रहे हैं। ऐसे नहीं मैं खा लूँ और किसी की इच्छा हो खाने की, वो खाना अन्दर नहीं जायेगा, जायेगा तो भी हज़म नहीं होगा। तो हम खाऊं, हमको मिलें… नहीं, सबको मिलें, सब खायें।
मुझे अन्दर से सच्ची दिल से साहेब को राज़ी रखने का पुरुषार्थ करना है। साहेब तब राज़ी होता है, जब हम उनके डायरेक्शन, उनकी श्रीमत, उनके इशारे प्रमाण चलते हैं। तो हमारी बुद्धि में क्लीयर डायरेक्शन्स हों, तब हम टाइम पर सबकुछ कर सकेंगे। दूसरे का भी टाइम बचाए, उसको मदद कर सकते हैं तो इतना तो सीखना पड़ेगा।
आजकल बाबा हर बात में कहता है- विघ्न-विनाशक बनने की डिग्री पास करो। विघ्न आवे ही नहीं,आया तो यह खेल है, क्या बड़ी बात है। खेल में खेल तो होता ही है। पर खेल समझ करके खुश रहें। उदास न रहें, थोड़ी उदासी आई माना ड्रामा का ज्ञान नहीं है, अपवित्रता आई। अपवित्रता ने उदासी लाई तो मेरी खुशी कम कर दी। भगवान मुझे खुशी देवे, तो सदा खुश रहने की साधना व साधन है पवित्र संकल्प। तो अपने संकल्प को चेक करो, अपने ऊपर मेहर करके किसी के भी भाव-स्वभाव में नहीं आओ।
यह अच्छा है, यह खराब है…यह भी अपवित्र संकल्प है, जिसने जिसको अच्छा कहा वो उसके ऊपर आशिक है और उसने समझा हाँ यही मुझे अच्छा समझते हैं तो वो हुआ आशिक, तो उन दोनों का माशूक छूट गया। अपने आपको ज़रा ऊपर से बाबा की तरह देखो तो लगेगा कि यह दोनों आपस में आकर आशिक हो गये हैं। सबका माशूक वो रह गया, उन जैसा अच्छा कोई नहीं, यह भूल गया। हम ब्रह्मा मुख वंशावली ब्राह्मण हैं तो इतनी ही पवित्रता बाबा हमारे से चाहता है।