क्रोध की अग्नि को शांत करना है तो ऐसा करें…

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देह अलग, मैं आत्मा अलग हूँ। जितना हम अशरीरीपन में आते जायेंगे तो उतना चित्त शांत होता जायेगा। न उसमें क्रोध की अग्नि जलेगी और न व्यर्थ संकल्पों का तूफान चलेगा।

संकल्प मनुष्यों के अनुभव का आधार है। चाहे आप योग करते हैं या किसी कार्य में तत्पर हैं। संकल्प ही हमें सबकुछ प्रदान करते हैं। कार्य प्रारंभ करने के पहले कुछ स्वमान के संकल्प अपने मन में लाया करें। कार्य पर उसका बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। बाबा का एक महावाक्य याद कर लेंगे श्रेष्ठ स्मृति से कार्य प्रारंभ करना और साधारण स्मृति से कार्य प्रारंभ करना, दोनों के परिणाम में बहुत बड़ा अंतर होगा। जो मनुष्य क्रोधी होता है उसके भी बहुत व्यर्थ संकल्प चलते हैं। एक बार गुस्सा आ गया बहुत देर तक मन खीन्नता से भरा रहेगा। गुस्से में किसी को गलत बोल दिया, अपमान कर दिया। जो अच्छे लोग हैं उन्हें बहुत बुरा लगेगा, लेकिन जो गुस्सा रोज़ ही करते हैं वे सोचते हैं कि हमने इनको ये कहा बहुत अच्छा हुआ। लेकिन एक समझदार व्यक्ति जो अपने को परिवर्तित करते जा रहा है। उसको लगेगा नहीं हमें इसको परिवर्तन करना चाहिए, ये अच्छा नहीं है और किसी को दो-चार बार दिन में गुस्सा आ जाये और अगर किसी की क्रोध करने की नेचर ही बन गई हो, बात-बात में बिगड़ जाते हो तो उनका जीवन तो नर्कतुल्य है और उनके साथी भी उनसे परेशान होकर छोड़कर भाग जायेेेेेंगे या दूरी बनायेंगे या उदास दिखाई देंगे। इसलिए हमें क्रोधमुक्त जीवन व्यतीत करना है। तब हम अनेक व्यर्थ संकल्पों से मुक्त हो सकेंगे।
कभी-कभी ऐसा भी होता है- किसी ने हमारे लिए बुरा कर दिया। अब हमारे मन में बदला लेने की भावना है, वैर की भावना है। उसने कुछ ज्य़ादा गलत किया है तो हमारे मन में व्यर्थ संकल्पों का तूफान चलता रहेगा। हम मौका ढूंढते रहेंगे कब हम इनको सुनायें, कब इनसे बदला लें, कब इनको पार्ट सिखायें। ये बहुत चढ़ते जा रहे, मुझे इसेे ठीक करना पड़ेगा। एक उधेड़बुन मनुष्य के मन को उलझाये रखती है। एकाग्रता नष्ट हो जाती है। विवेक पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। बुद्धि इससे कमज़ोर पडऩे लगती है और विवेक शक्ति, बुद्धि बहुत बड़ी चीज़ है। ये जीवन में हमारी सफलताओं का आधार है। चाहे हमें धन प्राप्त करना हो, चाहे किसी कार्य को सफल करना हो, चाहे संबंधों में मिठास घोलनी हो, चाहे अपने कारोबार को बढ़ाना हो, तो बुद्धि इन सबमें अपना अहम रोल अदा करती है। क्रोध बुद्धि पर कुठाराघात(कुल्हाड़ी से लगी चोट) करता है। इसलिए हमें क्रोध की अग्नि को तो शांत करना ही पड़ेगा,क्योंकि क्रोध में मनुष्य दूसरों के लिए गलत शब्द उच्चारण कर लेता है तो उस व्यक्ति के जो बहुत बुरे-बुरे, निगेटिव संकल्प चलते हैं तो उसका इफेक्ट क्रोध करने वाले पर भी बहुत आता है। उसके संकल्प भी शांत नहीं हो पायेंगे। फिर वातावरण में फैलते हैं और वातावरण को कमज़ोर करते हैं। इसलिए जैसे हमने काम को जीतने के लिए चार संकल्प लिये थे, वैसे क्रोध को जीतने के लिए चार संकल्प दे रहे हैं। ये संकल्प सुबह उठते ही करने हैं क्योंकि उस समय हमारा सबकॉन्शियस माइंड जगा रहता है। उस समय के विचारों का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। तो पहला संकल्प करेंगे- मैं मास्टर सर्वशक्तिमान हूँ। इससे सोई हुई शक्तियाँ जागृत होने लगेंगी। दूसरा संकल्प करेंगे मैं विजयी रत्न हूँ। वो शक्तियाँ विजय दिलाने की ओर अग्रसर करेंगी। तीसरा संकल्प करेंगे मैं क्रोधमुक्त हूँ। तो वो शक्तियाँ विजयी होंगी क्रोध पर। चौथा संकल्प करेंगे मैं शांतहूँ, मैं शांत हूँ, मैं शांत हूँ…। इसी क्रम से हम पांच बार इसको कर लेंगे। तो हमारा मन शांत होता जायेगा और साथ में अशरीरीपन का अभ्यास जिसका ज्ञान स्वयं भगवान ने हमें बहुत गहराई से दे दिया है। मैं आत्मा इस तन में अवतरित हुई हूँ। भृकुटि की कुटिया में बैठ गई हूँ। अब इसका अभ्यास अगर हम एक मिनट कर लें तो अनेक व्यर्थ संकल्प नष्ट होते जायेंगे। रोज़-रोज़ करेंगे तो बहुत बड़ा लाभ,अनुभव प्राप्त होगा। दूसरा मैं आत्मा इस देह से न्यारी हूँ। देह अलग, मैं आत्मा अलग हूँ। जितना हम अशरीरीपन में आते जायेंगे तो उतना चित्त शांत होता जायेगा। न उसमें क्रोध की अग्नि जलेगी और न व्यर्थ संकल्पों का तूफान चलेगा।
क्रोध का जन्म कामनाओं से होता है। फिर उन कामनाओं से बहुत सारे संकल्प चलते हैं, कामना पूरी नहीं हुई तो क्रोध आता है,तो और ज्य़ादा संकल्प चलने लगते हैं। कोई हमें सम्मान दे, लेकिन हम भूल गये कि भगवान हमें सम्मान दे रहे हैं। आज व्यक्ति सम्मान देगा, कल नहीं देगा। ऐसे तो मनुष्य की कामनाएं कभी पूर्ण नहीं होंगी। इसलिए अपनी कामनाओं को भी कम करते चलें और धैर्यवत हो जायें। जो व्यक्ति धैर्यवत हो जाता है। उसके संकल्प बहुत कम चलते हैं। कई लोग गुस्से में कहा करते हैं कि सबको क्षमा कर सकता हूँ, लेकिन इसको क्षमा नहीं करूंगा। क्योंकि ज्य़ादा क्रोधित होने से हमारा ज्ञान-योग बिल्कुल समाप्त हो जाता है।
मन हमारा मंदिर है, इसको बहुत स्वच्छ रखना है। क्रोध को छोड़ें, व्यर्थ से मुक्त हो जायें। तभी चेहरे पर खुशी के एक्सप्रेशन आयेंगे। श्रेष्ठ भाग्य की रेखाएं स्पष्ट दिखाई देंगी और हमारा प्रैक्टिकल जीवन दूसरों को सच्ची राह दिखाने वाला बन जायेगा।

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