समय की मांग… निर्भरता को कम करते चलें

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लोगों को तो हम कह देते हैं मुझे फ्रीडम चाहिए, आप मुझे मत बोलो क्या करना है क्या नहीं करना है। आज हमें अपने मन को कहना है कि मुझे फ्रीडम चाहिए कि यह मेरा निजी संस्कार है, यह मेरा स्वभाव है, आई विल चूज़, आई विल चूज़।

हमें क्या लगता है, हम किन-किन चीज़ों के गुलाम हैं? कभी-कभी हम अपने आप को सिचुएशन पर डिपेंड पाते हैं, कभी लोगों के बिहेवियर पर, कभी-कभी तो टेक्नोलॉजी गैज़ेट, जो चीज़ें हम सारा दिन यूज़ करते हैं, उनके लिए भी हम कहते हैं कि इसके बिना मेरा नहीं चलता, इसके बिना तो मेरा काम ही नहीं हो सकता। कभी-कभी जब वह चीज़ ठीक नहीं चलती, एक चीज़ नहीं मिलती तो हम परेशान, हताश हो जाते हैं, तो उन साधनों के भी हम गुलाम बन जाते हैं। कभी-कभी हम खाने-पीने की चीज़ों के गुलाम बन जाते हैं। पता है कि ये नहीं खाना चाहिए, फिर भी कहते हैं क्या करें, इसके बिना मेरा नहीं चलता। यह ना हो तो मन परेशान हो जाता है, इनके बिना मेरा नहीं चलता, यह शब्द, यह बिलीफ सिस्टम हमारी इस गुलामी को, इस इमोशनल डिपेंडेंसी को, इस इमोशनल बॉन्डेज को बार-बार और पक्का करता जाता है, पक्का करता जाता है और जितना हम इसको पक्का करते जाते हैं हमारी गुलामी और बढ़ती जाती है। छोटी-छोटी बातों पर हम रिएक्ट कर देते हैं, कोई हमारी तरफ एक नज़र ठीक से ना देखे तो हम रूठ जाते हैं अर्थात् डिपेंडेंसी और बढ़ती जा रही है। आज हमें इन डिपेंडेंसीज़ को खत्म करना है।
हम सबको फ्रीडम अच्छी लगती है ना! लोगों को तो हम कह देते हैं मुझे फ्रीडम चाहिए, आप मुझे मत बोलो क्या करना है क्या नहीं करना है। आज हमें अपने मन को कहना है कि मुझे फ्रीडम चाहिए कि यह मेरा निजी संस्कार है, यह मेरा स्वभाव है, आई विल चूज़, आई विल चूज़। आज दिन तक हम चूज़ तो करते हैं जीवन के बड़े-बड़े डिसिज़न्स, कौन से कॉलेज में जाना है, कौन-सा कोर्स करना है, कौन हमारे फ्रेंड्स हैं, कहाँ काम करना है। यह हमारे जीवन के बड़े-बड़े डिसीज़न्स होते हैं और यह हमें चूज़ करने अच्छे लगते हैं। लेकिन कुछ डिसीज़न होते हैं जो सारा दिन हो रहे हैं। छोटे-छोटे डिसीज़न। कौन से डिसीज़न? कोई बात आई, सामने से कोई सिचुएशन आई, किसी व्यक्ति ने कुछ कहा, किसी तरह काम किया, ये सामने से आती हुई सारे दिन के अंदर छोटी-छोटी सिचुएशन्स हैं। लेकिन हर सिचुएशन में हम रिस्पॉन्ड करते हैं।
कोई भी बात आती है, हमारी एक थॉट चलती है। फिर कई सिचुएशन में हमारे बोल निकलते हैं, कुछ सिचुएशन्स में हमें बिहेव भी करना है। तो तीन एनर्जी है थॉट्स, वर्ड्स एंड बिहेवियर। ये हमारा रिस्पॉन्स है जो एवरी सिचुएशन है। लेकिन यह रिस्पॉन्स क्या हम चूज़ कर रहे हैं! क्या हम डिसाइड कर रहे हैं या हम सिर्फ जैसी सिचुएशन जैसा व्यक्ति वैसा हम रिएक्ट कर देते हैं और फिर कहते भी हैं कि मेरी गलती नहीं थी, बात ही ऐसी थी, उन्होंने बात ही ऐसी की। इसका मतलब हम अपने निर्णय की जि़म्मेदारी भी नहीं लेते हैं, क्योंकि हमें लगता ही नहीं कि यह मैंने डिसाइड किया था, हमें लगता ही नहीं कि यह मैंने चूज़ किया था। हमें लगता है कि यह अपने आप हो जाता है। इसका मतलब हम कौन-सी स्टेज पर आकर पहुंचे कि हमें यह अवेयरनेस ही नहीं है कि यह एक डिपेंडेंसी है, हमें अवेयरनेस ही नहीं है कि हम किसी के बिहेवियर, किसी के एक शब्द के गुलाम बन चुके हैं। हमारा मन स्वतंत्र नहीं है कि इसको क्या सोचना है, मुझे क्या बोलना है। इतनी डिपेंडेंसी आ गई कि हमें अवेयरनेस ही नहीं है कि हम डिपेंडेंट हैं।
तो इस डिपेंडेंसी को, इस गुलामी को आज खत्म करना है ताकि सारे दिन के छोटे-डिसीज़न कि हर सीन में कैसे रिसपॉन्ड करना है, हरेक के व्यवहार के सामने कैसे रिसपॉन्ड करना है, कोई काम ठीक करे ना करे, मुझे कैसे रिस्पॉन्ड करना है। मेरा रिस्पॉन्स, मेरी थॉट, मेरा वर्ड, मेरा बिहेवियर मेरे अनुसार होना चाहिए, सही होना चाहिए, एक्यूरेट होना चाहिए।

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