योग हमारी अंतरमन की भाषा है। ये ऐसी अभिव्यक्ति है जो हमें ऊर्जावान बना देती है हर मायने में। मनुष्य शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक रूप से सशक्त अनुभव करता। इस योग का आधार कोई मनुष्य नहीं है बल्कि निराकार परमात्मा हैं जिनके द्वारा राजयोग प्रस्फुटित होता है। आधार मनुष्य का लेता है लेकिन जीवन देवत्व का प्रदान करता है। एक सकारात्मक चिंतन, चित्त को गहनतम चैन और बुद्धि को कर्म और भाग्य लिखने की कलम हमारे हाथ में देता ये राजयोग। वर्तमान मनुष्य की मनोदशा को सही दिशा दिखाता राजयोग।
सभी का एक बहुत गूढ़ प्रश्न है कि आप सभी बार-बार कहते हो कि राजयोग सीखो। तो क्या ये योग से अलग है या योग ही है, इसका सिद्धान्त अलग है। आज इसकी स्पष्टता को हम समझते हैं। राजयोग, योग ही है लेकिन एक लक्ष्य के साथ जीवन के रहस्य को सम्पूर्ण रीति से उजागर करना और हर पहलू को हील करना इस योग की विशेषता है। सभी ने अलग-अलग तरह से योग की महिमा की। लेकिन राजयोग के अंदर ही वो सारे योग समाये हुए हैं। राजयोग के अंदर सहज योग भी है, सहयोग भी है, ध्यान योग भी है, कर्म योग भी है। सारे योगों को समेटे हुए है। इसलिए इसको एक संयुक्त रूप से राजयोग कह दिया। अलग-अलग योगों के साथ नहीं जोड़ा। राजयोग में अति आवश्यक चीज़ जो होती है वो है किसी चीज़ की पहचान और उसका परिचय। यहां हमको परमात्मा हमारी खुद की और साथ में अपनी पहचान और परिचय देते, उस आधार से हम सम्बंध जोड़ते हैं। बाकी प्रत्यक्ष रूप से हम ये बिल्कुल नहीं कहना चाहेंगे कि लोगों को नहीं पता है, लेकिन इतना ज़रूर कहेंगे कि अधूरा है। इसलिए योग को सम्पूर्ण रीति से समझना मुश्किल होता है। ज्य़ादातर आप देखेंगे कि लोग बाहर बैठ जाते हैं, आँखें बंद कर लेते हैं। लेकिन आँखें बंद करके वो क्या कर रहे हैं, किसका ध्यान लगा रहे हैं ये हमें बिल्कुल नहीं पता। बस बैठे हुए हैं। लेकिन राजयोग में लक्ष्य क्लीयर है, लक्षण क्लीयर है, इसलिए इस योग में परमात्मा से जुडऩे में मज़ा आता है। जैसे कभी मन में किसी भी तरह का दु:ख, दर्द, तकलीफ है तो शरीर पर उसका प्रभाव भी दिखाई देता है। राजयोग की जो पहली समझ है कि आप आत्मा हैं और शरीर आपका माध्यम है। मतलब मैं जैसा सोचंूगा वैसा मेरा शरीर बन जायेगा, ये हमें बहुत सारी तकलीफों से दूर कर देता है। इसलिए सम्पूर्णता को अपने में समेटा हुआ यह योगों का राजा राजयोग स्वयं परमात्मा द्वारा ही सिखाया जाता है और जा सकता है। अगर आप गीता ग्रंथ बार-बार पढ़ें तो उसमें भगवानुवाच शब्द का बार-बार वर्णन किया गया है।
इसके अठारह अध्यायों में परमात्मा ने योग के सभी पहलुओं को छुआ है। लेकिन उपरोक्त वर्णित सारे योग अपने आप में सम्पूर्ण नहीं हैं इसलिए उन सभी को समेट करके राजयोग का नाम दिया गया है। दुनिया में लोग वैराग्य की बात करते हैं। हम यहां पर अनासक्ति योग की बात करते हैं जो गीता में वर्णित है। अर्थात् घर-गृहस्थ में रहते कत्र्तव्यों का पालन करो, लेकिन प्रकृति के पदार्थों तथा दैहिक सम्बंधियों में मोह का नाश करो। दुनिया में लोग कहते हैं कि कर्म के बिना तो कोई रह ही नहीं सकता लेकिन यहां पर कर्म के बिना की बात तो नहीं की गई, लेकिन अज्ञान युक्त कर्म और विकार युक्त कर्म का त्याग करो। मतलब कर्म करो लेकिन परमात्मा की याद में सुकर्म करो। ये प्रवृत्ति मार्ग को सशक्त करता है। इसलिए राजयोग एक सम्पूर्ण प्रवृत्ति को पवित्र और सुखमय जीवन जीने का आधार सिखाता है।