सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए यह भी ज़रूरी

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क्या अटेंशन चाहिए
ध्यान है, धर्म और योग की आत्मा। ध्यान की प्रक्रिया बड़ी सरल है। हमें ध्यान अथवा अटेंशन यह देना होता है कि किस विचार को महत्त्व देना है, किसे नहीं देना है। इसलिए ध्यान करना ज़रूरी है। स्वयं को ढूंढऩे के लिए ध्यान ही एकमात्र विकल्प है। दुनिया को अपने ऊपर ध्यान देने की ज़रूरत है चाहे वह किसी भी धर्म या देश का व्यक्ति हो। ध्यान से ही व्यक्ति की मानसिक संरचना में बदलाव हो सकता है। ध्यान या अटेंशन हमें एकाग्रता की ओर ले जाता है, एकाग्रता हमें योग या मेडिटेशन की ओर ले जाती है। भावार्थ है कि जब हम अटेंशन रखेंगे तो हमारी एकाग्रता बढ़ जाएगी और धीरे-धीरे हम जिससे जुडऩा चाहें जुड़ सकते हैं। ध्यान जागरूकता को बढ़ाता है।

स्वस्थ आत्मा से ही प्रारंभ होता स्वास्थ्य
आत्मा एक ऊर्र्जा है जो सभी शारीरिक गतिविधियों को सम्पन्न करती है तथा पूरे शरीर को ऊर्जावान व सशक्त करती है। आत्मा शरीर के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कारक है। जब आत्मा(मालिक) शरीर को छोड़ देती है, तो शरीर अपनी जागरुकता, सोचने की क्षमता, निर्णय, कार्य एवं अनुभव को खो देता है। शरीर से आत्मा के निकलते ही सभी शारीरिक कार्य शिथिल हो जाते हैं। इसलिए आत्मा जीवित मानव शरीर में जीवनशक्ति है। यह पीयूष ग्रंथि के हाइपोथैलेमस में और ललाट के केन्द्र में अवस्थित होता है जो सभी इन्द्रियों के सम्पर्क में होती है तथा इनके माध्यम से ही कार्य करती है। चेतन मन पाँच इन्द्रिय अंगों के आगे से विचारों, भावनाओं और इच्छाओं तथा इच्छाओं के रूप में सूचनाएं प्राप्त करता है। इसके पश्चात् शरीर सभी कार्यों को मोटर अंगों द्वारा क्रियान्वित करता है।
‘ध्यान’ कोई क्रिया नहीं है
बहुत से लोग ध्यान को क्रिया या योग समझने की भूल करते हैं। बहुत से संत या महात्मा ध्यान की तरह-तरह की क्रांतिकारी विधियां बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं जानते कि विधि और ध्यान में फर्क है, क्रिया और ध्यान में फर्क है। क्रिया तो साधन है साध्य नहीं। क्रिया तो औज़ार है। क्रिया तो झाड़ू की तरह है। आंख बंद करके बैठ जाना ध्यान या योग नहीं है। किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है। माला जपना भी ध्यान नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि पांच मिनट ईश्वर का ध्यान करो – यह भी ध्यान नहीं स्मरण है। ध्यान है क्रियाओं से मुक्ति। व्यर्थ विचारों से मुक्ति का नाम ध्यान है।
ध्यान अथवा योग का प्रारंभ
ध्यान की शुरुआत से पूर्व की क्रिया यह है कि मैं क्या सोच रहा हूँ और क्यों सोच रहा हूँ, इस पर हमें ध्यान देना है। हमारा विचार भविष्य या अतीत का तो नहीं है। आपके विचार कैसे हैं, इस पर ध्यान देना अति आवश्यक है। यदि विचार देह या देह के सम्बन्धियों से सम्बन्धित है, तो यह एक प्रकार का विकार है अर्थात् यह आपको पुन: बेकार या व्यर्थ की ओर ले जाएगा। वर्तमान में जीने से जागरूकता जन्मती है। भविष्य की कल्पनाओं और अतीत के सुख-दु:ख में जीना ध्यान या योग के विरुद्ध है।
सर्वप्रथम आपका अपने आप से योग या जुड़ाव होगा, आप देख पायेंगे कि मेरे मन में मुझ आत्मा का निजी स्वरूप, व उसके गुण ही चल रहे हैं या कुछ और! बस इस पर ध्यान देते-देते आप स्वयं से जुडऩे लगेंगे। मन में व्यर्थ संकल्पों का चलना बंद हो जायेगा। इसके बाद जब आप उन विचारों पर एकाग्र हो जाते हैं तो वैसे ही अपने मन के परदे पर पिता परमात्मा निराकार शिव, जो हमारे जैसे ही रूप में ज्योति बिंदु स्वरूप हैं, पर अटेंशन या ध्यान देना है। आप जैसे-जैसे ध्यान देते जायेंगे आपका योग परमात्मा से स्वत: लग जायेगा।

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