जब शारीरिक रोग की दवा की जाती है तो स्वास्थ्य के लिए परहेज करना भी अति आवश्यक होता है क्योंकि परहेज के बिना पूरा निरोगी नहीं बन सकते। इसी तरह ही मानसिक रोगों को दूर करने के लिए जहाँ ज्ञान की दवाई है, तो वहाँ कुछ परहेज भी ज़रूरी हैं। जिसके बिना अवस्था ऊँची नहीं बन सकती। इनमें पवित्रता का पालन, अन्न दोष और संग दोष से मुख्य परहेज करना ज़रूरी है।
काम मनुष्य का महा शत्रु है क्योंकि इससे वह निर्बल बनता है। ब्रह्मचर्य का पालन मनुष्य का बहुत बड़ा स्वाभिमान है। वैसे भी कन्या को सौ ब्राह्मणों से श्रेष्ठ माना जाता है, उसकी पूजा की जाती है और घर में सब उसके चरण छूते हैं। परंतु विवाह के बाद उसका स्वाभिमान टूट जाता है। तब कोई उसके पांव नहीं छूता बल्कि वह स्वयं दूसरों के पांव छूने लग जाती है। यह आत्मा के निर्बल बनने का चिन्ह है। सभी धर्मों में अहिंसा को क्रपरम धर्मञ्ज और हिंसा को सबसे बड़ा पाप मानते हैं। परंतु यह कोई नहीं जानता कि सबसे बड़ी हिंसा काम कटारी चलाना है। क्योंकि इससे आत्मा का हनन होता है। यह शारीरिक हत्या से भी बड़ी हत्या है। योगी बनने के लिए भोगी जीवन छोडऩा अर्थात् ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना परमावश्यक है। काम के जीत लेने में अन्य सभी विकारों को जीतना सहज हो जाता है। मनुष्य आजकल के समय में ब्रह्मचर्य में रहना कठिन समझता है, परंतु ईश्वरीय ज्ञान और योग की शिक्षा के बल से इस व्रत का पालन सहज हो जाता है। ब्रह्मचर्य से योग में मदद मिलती है और योग से ब्रह्मचर्य का पालन सहज हो जाता है। यह भी एक अनुभव में लाई बहुत बड़ी सत्यता है।
विकारों की उत्पत्ति मन में होती है, अत: मन की पवित्रता बनाये रखने के लिए अन्न का शुद्ध एवं पवित्र होना ज़रूरी है। क्योंकि अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है। गीता में भी भोजन तीन प्रकार का माना गया है। सात्विक, राजसिक, तामसिक। योगी को सदा सात्विक भोजन लेने की ही आज्ञा है। इसलिए अंडा, मांस, मछली, शराब, सिगरेट, प्याज, लहसुन इत्यादि तामसिक वस्तुओं का सेवन उसके लिए निषेध है। चटनी, अचार, खटाई, लाल मिर्च, गरम मसाले इत्यादि राजसिक वस्तुएं भी जहाँ तक संभव हो, कम प्रयोग में लाने चाहिए। हल्का और सादा भोजन में दूध, फल और सब्जी का प्रयोग अधिक उपयुक्त है। अधिक और बोझल भोजन करने से योग में सुस्ती, आलस्य, नींद इत्यादि का प्रभाव आ जाता है। इससे आगे और भोजन बनाने वाले के संस्कार भी भोजन खाने वाले के मन पर असर डालते हैं। अत: योगी को शुद्ध संस्कारों वाले मनुष्य के हाथों से बना हुआ भोजन ही खाना चाहिए।
क्रजैसा संग वैसा रंगञ्ज- यह उक्ति भी यथार्थ है क्योंकि बुरी संगत में आने से पुराने एवं अशुद्ध संस्कार पुन: जाग उठते हैं। इसलिए विकारियों की संगत बिल्कुल छोड़ देनी चाहिए। आज संसार में यत्र तत्र सर्वत्र माया रूपी रावण का ही राज्य है। सृष्टि की तमोप्रधान अवस्था है। ज्ञान का रंग बड़ी मुश्किल से चढ़ता है क्योंकि अज्ञानियों की संगत में जाने से उनके बुरे संस्कार तुरंत आ जाते हैं। यदि ऐसे बुरे मनुष्यों के साथ किसी कार्यवश रहना भी पड़े तो अपनी पूरी संभाल रखनी चाहिए। और शीघ्र वहां से चले जाना चाहिए। घर में गंदी तस्वीरें भी नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि इनका मन और बुद्धि पर सूक्ष्म प्रभाव पड़ता है। जैसे हंस का बगुलों के साथ संग शोभा नहीं देता, वैसा ही योगी का भोगी के साथ संग शोभनीय नहीं है।
योगी को मूलत: इन तीन परहेज के साथ ज्ञान दवा का नियमित सेवन करना चाहिए। क्योंकि बिना परहेज दवा भी असर नहीं करती। इसीलिए ये तीनों ही योगी को अपने जीवन में अपनाना अति आवश्यक है। तब ही हम ऊँची स्थिति को पाते हैं और परम कत्र्तव्य का पालन करने में समर्थता आती है।