सबके लिए भाव और सभी का बदले स्वभाव

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हम जब योगी जीवन अपनाते हैं तो सभी कहीं न कहीं किसी न किसी सेवाकेन्द्र से अवश्य जुड़ते हैं। सभी की मानसिक और शारीरिक अवस्था अलग-अलग है। सबकी दृष्टि, वृत्ति, कृति अलग-अलग है। सबकी सोच का दायरा अलग है। इसलिए सबको प्राप्ति भी अलग-अलग है। जब कभी हम शुरु में परमात्मा के साथ जुड़ते हैं, योग लगाते हैं तो उस समय योग हमारा जल्दी से लग जाता है। लेकिन धीरे-धीरे जब हम सबके संपर्क में आने लग जाते हैं, सब से मिलते-जुलते हैं तो हम उस योग की अनुभूति को करने में सक्षम नहीं होते जो पहली बार किया था। ऐसा क्यों, ऐसा इसलिए कि पहले जब आप परमात्मा से जुड़े तो वहां आप किसी को नहीं जानते थे तो आपका जाकर वहां पर योग लग गया। धीरे-धीरे जब लोगों से जुड़े, भले उस परिवार को हमने अपना माना, लेकिन उसके बाद निरंतर हममें कमी होती गई या नहीं होती गई ये हमें सोचना है। ऐसा क्यों हुआ, क्योंकि हमने वहां सबको देखना शुरु किया और हमारी सोच बदल गई। यदि हमारे भाव सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के घर के लिए हों तो घर में आने वाले सारे सदस्यों के लिए होगा लेकिन अगर सिर्फ सदस्यों के लिए होगा, तो हो सकता है कि कुछ से हो, कुछ से न हो। इसलिए हमारे भाव हर दिन, हर पल, हर क्षण बदल रहे हैं और बदलते रहेंगे। इसलिए जब तक हमारे भाव में आत्मिक भाव, परमात्मा के घर के लिए भाव, परमात्मा के एक-एक चीज़ के लिए भाव, परमात्मा के घर में रहने वाले निमित्त के लिए भाव नहीं होंगे तब तक योग लगना मुश्किल है। तो कहा जाता है कि आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। जिस लक्ष्य को लेकर आये थे कि हमको भगवान मिल गया, उससे योग लगाकर मैं मास्टर भगवान बनूंगा, वो स्थिति कहीं इधर-उधर चली गई। इसलिए बिना भाव रखे आपका स्वभाव नहीं बदलेगा। जो कहीं भी आता है, जाता है, शिव परमात्मा से जुड़ा हुआ है, उसको वहां के प्रति भाव खुद में भी बिठाना है, औरों के अंदर भी बिठाना है। तब जाकर के योग लगेगा। यही है भाव और स्वभाव का अप्रतिम मिलन।
मतलब जो कुछ भी हमारे अंदर बदलाव का आधार है, वो सिर्फ और सिर्फ भाव ही है। और वो आता है सहज तरीके से सभी को परमात्मा का बच्चा मानने तथा उसी हिसाब से उनके साथ व्यवहार करने से। और ये हम सबको गांठ बांध लेनी है।

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