ये दो बोल अपनी डिक्शनरी से तो क्या पर सोच से, वृत्ति से भी निकाल दो

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हमको बीच-बीच में बार-बार अशरीरी बनने का अभ्यास ज़रूर करना है। यह बहुतकाल का अभ्यास चाहिए। समय के अनुसार सभी साधारणता बिल्कुल खत्म हो जानी चाहिए। जो यहाँ बहुतकाल स्वराज्य अधिकारी बनते हैं वही वहाँ बहुतकाल के राज्य अधिकारी बनते हैं। सर्विस तो हो भी रही है और होती भी रहेगी लेकिन यह विदेहीपन की स्टेज का अनुभव अभी बढ़ाना चाहिए। जब हम इस अभ्यास में सम्पूर्ण और सम्पन्नता की ओर आगे बढ़ेंगे तब हम बड़े हैं, निमित्त हैं। तो हर एक विन करके वन नम्बर अर्जुन बने, यही उम्मीद बापदादा ने रखी है। तो इस उम्मीद को पूरा करेंगे ना? करनी ही है। हम बापदादा के दिल की आशाओं के दीपक नहीं करेंगे तो और कौन करेंगे? करेंगे नहीं, गे, गे… खत्म। संकल्प मात्र भी ऐसे संकल्प नहीं लाना है। बाबा की सब उम्मीदें हमें पूरी करनी हैं। स्व को देखें, स्व का दर्शन करें, स्वमान में रहें। निमित्त होने कारण सभी हमको कई बातें सुनायेंगे ज़रूर, फिर भी उस व्यर्थ वायब्रेशन में न आ करके, किसी के कमज़ोर संस्कार का प्रभाव हमारे ऊपर न पड़े। शुभ भावना सम्पन्न रहें। बाबा हमेशा याद दिलाते हैं कि बच्चे यहाँ धर्म और राज्य दोनों स्थापन हो रहे हैं इसलिए हमको सदैव सर्व के प्रति शुभ भावना रखनी है। भले कोई कैसा भी है, है तो बाबा का बच्चा, आया तो यज्ञ वत्स होके है इसलिए हर एक के प्रति शुभ भावना, शुभ कामना रखकर, उनको सहयोग दे करके आगे बढ़ाना है। शिवबाबा समान फूलों से भी प्यार तो कांटों से भी प्यार रखना है। किसी के साथ ज्य़ादा लगाव भी न हो लेकिन एक सद्भावना से उसका कल्याण करने की भावना ज़रूर हो, तो उसका फल ज़रूर मिलता है। हम निमित्त हैं तो निमित्त वालों को थोड़ा विशेष अटेन्शन देना ही पड़ेगा। नहीं तो और भी हमें देख हमारे जैसा ही करते रहेंगे क्योंकि हम निमित्त हैं इसलिए व्यर्थ, निगेटिव, साधारण संकल्पों से स्वयं को बचाना ज़रूर पड़े क्योंकि संगठन हमारा बढ़ता ही जायेगा और सब जगह पर बातें भी ऐसी नई-नई सुनने में आती हैं, जो समझ में ही नहीं आता है, कौन बोलने वाला है और कहाँ से बातें आ रही हैं? यह हैं हमारे पेपर। जैसे साइडसीन में सब तरह की चीज़ें आती जाती रहती हैं। तो ये जो भी पेपर व तूफान आते हैं उसको एक तोहफा समझकर पास करें, क्योंकि यह सब अनुभवी बनाके आगे बढ़ाते रहते हैं। और ऐसे समय पर बुद्धि रूपी विमान से परमधाम में सर्वशक्तिवान बाबा के साथ बैठ जाओ तो उसके आगे कोई बड़ी बात नहीं है। तो हमारा ऐसा अभ्यास होना चाहिए, जो भी अपने को निमित्त समझते हैं वह अपनी जि़म्मेवारी पूरी निभायें। दो बोल अपनी डिक्शनरी से तो क्या पर सोच से, वृत्ति से भी निकाल दो कि – क्या होगा? कैसे होगा? क्योंकि इससे उदासी आती है। भगवान के बच्चे और ऐसे सोच में चले जाने से तो न कभी स्वमान में रहेंगे, और बाबा से जो मिला है वह हमारी जीवन में दिखाई भी नहीं देगा। दूसरे को भी प्राप्ति नहीं होगी। अकेले हैं या सबके बीच में हैं लेकिन हमें तो सारा जहान देख रहा है। एक तरफ बाबा देख रहा है, दूसरा परिवार देख रहा है तो सोचो हमें स्वयं को कैसे देखना चाहिए? कई ऐसी अच्छी-अच्छी, ऊंची-ऊंची बातें जो हैं वो स्मृति में रखने से अपने ऊपर अटेन्शन रहता है और वही सिमरण करने से स्व सहित सर्व को प्राप्ति होती रहेगी। हम आत्मा भी निमित्त हैं परमात्मा से मिलाने के लिए, ऐसी सोच हो तो और किसी प्रकार का रिंचक मात्र भी हमारे अन्दर संकल्प आ नहीं सकता है।

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