अपने भारत में विविध धर्मों के वैविध्यपूर्ण व्रतों, उत्सवों और त्योहारों का अनोखा महत्व है और ये सही अर्थों में सस्कृति का आध्यात्मिक वर्र्सा है। होली और धुलेटी के उत्सव यानी मनुष्य के मन रूपी बर्तन को मांजने का उत्सव का दिन है। आसत्त वृत्ति का नाश कर जीवन को रंगीन बनाना चाहिए, ऐसा संदेश देने वाला यह उत्सव है। होली के दिन रंगों के प्रतीक रूप मेें गुलाल आदि रंग डालते हैं। अपने उदास रहते मन को परमात्म संग के रंग में रंगने का यह उत्सव है। मानव के मन में बसे हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार रूपी दोषों को होली में दहन करने का ये उत्सव है। होली में रंग गुलाल डालते हैं और एक-दूसरे के दिलों को रंगते हैं। गुलाल रंग के साथ-साथ गीतों का गुलाल भी उड़ाते हैं।
होली के उत्सव मनाने के पीछे पौराणिक कथा है कि हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को भक्ति से छुड़ाने के लिए अनेक प्रयत्न किए, फिर भी वे उसे भक्ति से छुड़ा न सके। और उसको जिंदा जला देने के लिए बहन होलिका प्रहलाद को अपने गोद में ले बैठी। परंतु भक्त प्रहलाद की भक्ति के प्रवाह में होलिका की आग बुझ गई…। यह प्रसंग हमें सीख देता है कि असत्य कितना भी बलवान दिखाई देता हो किन्तु सत्य के सामने सदा हार ही जाता है। इसलिए हमें अपने जीवन को सत्य के मार्ग पर ही जीना चाहिए। अनीति से प्राप्त किया हुआ धन-सम्पत्ति कभी भी लंबा समय तक नहीं टिकता। इसलिए हम सभी को अपना जीवन सदाचारमय और ज्ञानयुक्त होकर जीना चाहिए।
होली के दिन होली प्रगटाते हैं। ऐसे में आज का मानव अपने अंदर के व्यसन, अनीति, भ्रष्टाचार, आसुरी वृत्ति, ईर्ष्या और लोभ की वृत्ति को अन्दर प्रगटा दे तो सबका जीवन सुखमय बन जाए।
होली के उत्सव से हमें यह सीख लेनी है कि हम अपने जीवन को सदा ईश्वरीय ज्ञान, गुण, शक्तियों के रंग से रंगीन बनाएंगे, अपने भीतर में ज्ञान का दीप जलाएंगे। अपने मन की मलीनता को जलाकर हमेशा-हमेशा के लिए भष्म कर देंगे और मन को सुमन, शुभ-मन, शुद्ध-मन के पुष्प से भरेंगे। और सर्व के प्रति शुभ भाव रखते हुए मन को पुलकित करेंगे, पुष्ट करेंगे।
होली का मतलब ही है ‘हो-ली’ माना कि जो बीत गया सो बीत गया, उसे समाप्त करना। हमें सद्गुणों से, सर्व के प्रति कल्याणमय व मंगलमय भावना से स्वयं को अंगीकार करेंगे। ऐसा उंमग-उत्साह और हौसला रखने का व्रत लेंगे। मन को दृढ़ता की डोरी से लगाम लगाते हुए अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाएंगे।
चलते-चलते जीवन में आने वाली कुछ भी प्रतिकूलता को दृढ़ता रूपी व्रत से गंतव्य दिशा की ओर आगे बढ़ते चलेंगे। हमने श्रेष्ठ जीवन जीने का लक्ष्य लिया है। जब भी हम शुभ कार्य के लिए आगे कदम बढ़ाते हैं तो भीतर की कमज़ोरी रूपी राक्षस से सामना होता है। हमें उससे घबराना नहीं है लेकिन उसे सही मायने में पहचान कर अपने मन को दुर्बल होने से बचाना है। स्वयं को व्यर्थ, परचिंतन, परदर्शन, परमत के प्रभाव से मुक्त रख सही दिशा में आगे बढ़ते जाना है। ऐेसे कुप्रभाव से अपने जीवन को मुक्त रखना है।
मैं और मेरापन के सूक्ष्म भाव से होने वाले नुकसान को पहचानेंगे और उसका निष्पादन करेंगे। आज मानव मैंपन के भाव में इतना रंगा हुआ है जो उसे सही अर्थों में जान ही नहीं पाता और ना ही समझ पाता कि वो उन्हें कैसे दीमक की तरह अन्दर ही अन्दर खोखला, दुर्बल और शक्तिहीन कर देता है। इसलिए परमात्मा ने हमें बताया हैं कि ‘मैं’ को अच्छी तरह से जानो, पहचानो। जिसने ‘मैं’ को सही रूप में पहचान लिया उसे कोई भी ताकत महान बनने से रोक नहीं सकेगी। अन्यथा यही ‘मैं’ जीवन को गर्त में डाल देगी। ‘मैं’ की महीनता में जाएंगे तो अपने भीतर की महानता दिखाई देगी व स्वयं की ऊर्जा को जान पाएंगे। और इस ऊर्जा से हमारे जीवन में उमंग-उत्साह का संचार होगा।
हिम्मतहीनता व उदासीनता का जन्मदाता है देह-अभिमान। इसीलिए परमात्मा हमें बारम्बार बड़े प्यार से समझाते हैं कि हे मेरे प्यारे बच्चों, अपने को ‘आत्मा’ समझो व अपने को आत्मिक गुणों के रंग से रंगो तो देहभान के कोहरे से मुक्त हो जाएंगे। हमारे इस जीवन के सुंदर अवसर को हम सुख-शान्ति-समृद्धि के रंगों से भरकर जीवन उत्सव के रूप में मनाएंगे। ऐसी ही शुभकामना और शुभभावना के साथ आगे बढ़ते चलेंगे।
‘होली उत्सव’ आसत्त वृत्ति का नाश कर जीवन को रंगीनमय बनाने का उत्सव
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