परमात्मा द्वारा विश्व परिवर्तन की अग्रदूत दादी प्रकाशमणि

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समय प्रति समय इस धरा का तम हरने किसी न किसी महान विभूति का धरा पर आना होता है। वो न सिर्फ ईश्वरीय शक्तियों से भरपूर होता बल्कि उन शक्तियों को धरा पर उतारता है। ऐसी महान आत्माएं आने वाली पीढिय़ों के जीवन में हर समय एक सहारा और पथ प्रदर्शक का कार्य करते। अवतार का मतलब ही होता है, ऊपर के आदेशों को धरा पर उतारना। भले ही कैसी भी परिस्थितियां हों, पर वो अपने उसूलों के साथ समझौता नहीं करते। वो इस सृष्टि में चलते-फिरते एक फरिश्ते के रूप में ही होते उनसे जो भी जहाँ भी मिलता, वो उनके उत्कृष्ट जीवन के प्रकाश की खुशबू लेता और बिखेरे बिना नहीं रहता।

ऐसे ही एक अवतार के बारे में हम बात करने जा रहे हैं जिससे कभी न कभी आपका स्थूल या सूक्ष्म सानिध्य हुआ ही होगा। पर कोई ऐसी महान विभूतियों के बारे में कुछ कहना चाहे तो वह अपने शब्दों में उसे उतारने में असमर्थ होते हैं। यूं तो दादी का जीवन ही खुली किताब की तरह रहा, फिर भी जो भी उनके सानिध्य में आये, उन्होंने दादी को अपने अनुभवों से जाना, समझा। हम किसी को अपने व्यक्तित्व के आधार से या यूं कहें कि हम अपनी क्षमता के आधार से देख पाते हैं। दादी का जीवन तो परमात्म निर्देशों को धरा पर उतारने के लिए ही था। परमात्मा द्वारा रचित इस महापरिवर्तन यज्ञ की दादी अग्रदूत थीं। उस महान आत्मा के जीवन से यही झलकता, जैसे कि उनका जीवन ही यज्ञ हो। वे यज्ञ की वेेदी भी स्वयं, कुण्ड भी स्वयं, आहुति भी स्वयं थीं। उन्होंने यज्ञ की मर्यादाओं को परमात्म मर्यादाओं में बांध कर रखा। दादी भले ही आज हमारे साथ साकार में न हों, लेकिन एक पल भी नहीं लगता कि वो हमारे साथ नहीं हैं। आज हर कोई दादी के पद्चिन्हों पर चलकर अपनी राह को आसान बना रहा है। दादी प्रकाशमणि को अगर पारसमणि की उपाधि दें, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। अक्सर उनसे मिलने से ऐसा महसूस होता कि हमारे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार हो रहा हो। हम अपने आपको मूल्यवान, कीमती सोना समझने लगते। वो समय तो अभी बीत चुका है, लेकिन आज भी उन क्षणों को सभी ने मूल्यवान समझकर संजो रखा है। दादी ने महानता के आसमान को छू लेने के बावजूद अपने अंदर की इंसानियत को सदा कायम रखा। एक सामान्य व्यक्ति या मानव के रूप में दादी को जब हम देखते हैं, तो इंसानियत और मानवता का अर्थ समझ में आने लगता है। दादी छोटे-बड़े, साधारण से भी साधारण व्यक्ति का खास ध्यान रखते। खास करके वृद्ध आयु के भाई-बहनों को पास बुलाकर विशेष एक-एक को उनके आरामदायक आवास-निवास के लिए पूछते, उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछकर उन्हें उचित सुविधा देते थे। दादी ने कभी भी किसी के द्वारा कही-सुनी बातों पर विश्वास कर किसी भी आत्मा के प्रति अपना मत नहीं बनाया, और उस व्यक्ति को उस नज़र से नहीं देखा। इतने बड़े विशाल यज्ञ में हर तरह के, हर विशेषताओं के, हर कैटेगरी के लोग रहते थे, उन सभी के लिए दादी खास थीं। और तो और, जब कर्मचारी वगैरह कार्य करते थे, वे भी दादी से बहुत प्यार करते थे, और दादी भी उन्हें प्यार लुटाती थीं। दादी हरेक के साथ जैसे एक मददगार के रूप में खड़ी हों, ऐसी सबको भासना आती थी। दादी के इस इंसानी जज़्बे रूपी विशाल वृक्ष की छाया से कोई भी वंचित नहीं रहा। दादी एक कुशल प्रशासिका तो थीं ही, पर उन्होंने एक आदर्श टीचर, सभी की प्रेरणास्रोत, एक ममतामयी माँ, पालनहार पिता के रूप में अपनी दूरदृष्टि से ईश्वरीय यज्ञ को आसमान की ऊँचाइयों तक पहुँचाया। परन्तु एक आदर्श विद्यार्थी का उनका रूप भी हम अनदेखा नहीं कर सकते। उन्होंने एक सफल प्रशासिका के साथ-साथ आदर्श विद्यार्थी की भूमिका भी बखूबी निभाई। दादी सभी से कुछ न कुछ गुण उठाती रहतीं अर्थात् सीखना उनके ज़हन में था। आठ दशक के जीवन में दादी एक प्रखर व्यक्तित्व के रूप में जीवंत रहीं। तो ऐसे महान आत्मा के पुण्य स्मृति दिवस पर यह घड़ी हमारे लिए सिर्फदादी को याद करने तक ही सीमित नहीं, अपितु अपना आत्मविश्लेषण करने की भी है। स्वयं को शांति की गहराई में ले जाकर, अपनी विशेषताओं को दादी की विशेषताओं के साथ जोड़कर देखना होगा कि कहाँ कमी है, जिसे हमें बदलना है। अगर हम ऐसा बन जाते हैं तो यही दादी को सच्ची खुशी दिलाने वाली हमारी श्रेष्ठ श्रद्धांजलि होगी। दादी पवित्र और निर्मल प्रेम की मूर्ति थीं। दादी के व्यक्तित्व में जो चुम्बकीय आकर्षण था, उसकी शुरुआत ही उनकी पवित्र और स्वच्छ मुस्कुराहट से होती थी। दादी की उपस्थिति मात्र ही आस-पास की हवाओं में अपनी रुहानी खुशबू फैला देती थी। दादी ने सबके गुणों को परखा और उसी अनुरूप उन्हें सेवाएं भी दीं और यज्ञ को विशेषताओं से भरा एक खूबसूरत गुलदस्ता बनाकर आगे बढ़ाया। आज भी उनके द्वारा सींचे गए इस विशाल वृक्ष का मीठा फल सर्व आत्माओं को मिल रहा है। ऐसी हमारी प्यारी दादी प्रकाशमणि, प्रकाश स्तम्भ बनकर आज भी हम सबके साथ और सम्मुख हैं। आज हम उनसे मिली शिक्षाओं को धारण कर उनके जैसा बनने की प्रतिज्ञा लेते हैं, यही हमारा उनके प्रति सच्चा स्नेह और श्रद्धासुमन है।

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