एक सिचुएशन लेते हैं जिसमें एक व्यक्ति को पाँच लोग देख रहे हैं और जिस व्यक्ति को देख रहे हैं या विटनेस कर रहे हैं वो बहुत गुस्से वाला है। अब वो पाँचों उस व्यक्ति को अच्छे से जानते हैं, अब अगर पाँचों से पूछा जाए कि इसको देखकर आपको क्या विचार उत्पन्न हो रहे हैं तो आपको क्या लगता है, वो क्या बतायेंगे? एक जैसा या अलग-अलग। शायद अलग-अलग। तो जैसे हमलोग कहते हैं कि गुस्सा मुझे आता नहीं है, कोई गुस्सा मुझे दिला देता है। अगर गुस्सा दिलाता तो उस व्यक्ति के लिए पाँचों के अंदर एक जैसे विचार होते। उसको देखकर सबको एक जैसा थॉट आता। लेकिन ये तो अलग-अलग है। इसका मतलब गुस्सा मेरे अंदर है, जो किसी सिचुएशन में रिफ्लेक्ट होकर बाहर आता है, ना कि कोई हमें दिलाता है। तो अलर्ट, सतर्क हो जाएं और चेक करें कि पहली बार मैं किस बात पर या किस-किस बात पर नाराज़ या गुस्सा होता हूँ उस बात को ढूंढ़ो। और वो कारण मात्र एक है कि अटैचमेंट है चीज़ों से। वो हमें वैसा रहने और करने के लिए मजबूर करती है। इसलिए संस्कार हमने सोच-साच कर ये वाले बना लिये हैं। सामने वाले व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति उसके लिए एक प्रतिबिम्ब मात्र हैं जो हमें ये बताते हैं कि आप ऐसे हैं। ये एक तरह की रियलाइज़ेशन है जो करके हमें अपने आपको इससे बचाना चाहिए।