दादी जी के साथ के कुछ अविस्मरणीय यादें, जो बने जीवनपर्यन्त प्रेरणादायी

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शारीरिक अस्वस्थता को ईश्वरीय सेवाओं में बाधा नहीं बनने दिया ड्रामानुसार दादी के साथ मुझे 40 वर्ष रहने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं छोटी आयु में ही यज्ञ में आ गई थी इसलिए दादी मुझे लवली बेबी कहती थीं। दादी ने मुझे हर कार्य सिखाया, छोटे से छोटे और बड़े से बड़ा। दादी के सानिध्य में आकर मैंने सिखा सब बड़ों के साथ, छोटों के साथ सबके साथ हमारा व्यवहार क्या होना चाहिए। दादी की तीन बातें बहुत ही प्रेरणादायक रहीं। निमित्त भाव, निर्मानचित्त और निर्मल वाणी। दादी इतनी बड़ी दादी थे तब भी उनमें कोई अहम नहीं था। निर्मानचित्त। चाहे कोई छोटा हो या बड़ा हरेक को रिगार्ड देना, हरेक का दिल लेना, हरेक के गुणों को देखना, हरेक को आगे बढ़ाना। कभी ज़ोर से नहीं बोलना, कभी गुस्से से नहीं बोलना लेकिन बहुत प्यार से कोई भी बात कहनी है। हम कितनी भी गलती करके आयें, लेकिन दादी जी सदा ही हमें प्यार से कहती थीं कि मुन्नी ये काम ऐसे नहीं ऐसे होता है। और निर्मल वाणी, अपनी वाणी को हमें बहुत मधुर और मीठा रखना है। हमेशा दादी का कहना था, कम बोलो, मीठा बोलो, धीरे बोलो और सोचकर बोलो। दादी से हमने सीखा सबको प्रेम देना है। कभी भी किसी के प्रति निगेटिव संकल्प नहीं आना चाहिए, व्यर्थ संकल्प नहीं आना चाहिए। सभी के प्रति पॉजि़टिव संकल्प, पॉजि़टिव विचार, समर्थ संकल्प और सदा सबको शुभ भावना और शुभ कामना का दान देना है। बाबा के अव्यक्त होने के बाद ओम शांति भवन में दादी मुरली सुनाते थे। तो कभी-कभी दादी की तबियत अच्छी नहीं होती थी, तो हम दादी को कहते थे कि आज आपको मुरली सुनाने नहीं जाना है। डॉक्टर ने कहा है, आज आपको रेस्ट करना है। लेकिन हमारी प्यारी दादी जब तक बच्चों से न मिले, तब तक उनको चैन नहीं आता था। वो तुरंत मेरे को कह देती थी तुम खुद भी सुस्त बनती हो और दादी को भी सुस्त बनाती हो। दादी तो ज़रूर जायेगी मुरली सुनाने के लिए। दादी रूकती नहीं थीं, कैसी भी तबियत में, कैसी भी परिस्थिति में। दादी क्लास में पहुंच जाती थीं। बाबा की मुरली सुनाती थीं और बाबा के सभी बच्चों से मिलकर याद-प्यार देती थीं। उसमें ही उनको चैन की अनुभूति होती। – राजयोगिनी ब्र.कु. मुन्नी दीदी,संयुक्त मुख्य प्रशासिका,ब्रह्माकुमारीज़

मास्टर बनकर नहीं, फ्रेंड बनकर चलाया जिस समय विदेश की सेवाएं शुरू हुई हैं उस समय दादी का शुरू से ही हर प्रकार से न सिर्फ सहयोग रहा, योगदान रहा परन्तु दादी लीडर के रूप में एक विशाल बुद्धि होने के कारण, दुरांदेशी बुद्धि होने के कारण दादी समझ सकती थीं कि विदेश की सेवा के लिए किस प्रकार से पालना देनी होती। तो जब हम दादी के पास आते थे, राय सलाह कोई लेनी होती तो दादी का बिल्कुल एक सेकण्ड बाबा की याद में रूकना और फिर दादी हमें ऐसे राय-सलाह देती थी जो बिल्कुल एक्यूरेट। दादी की हर प्रकार से जो राय होती थी वो बहुत ही योगयुक्त, युक्तियुक्त, राज़युक्त कहें वो हमको ऐसे एक्यूरेट बताती थीं, जो हमें एक्यूरेट गाइडेंस मिल जाती थी। तो उस आधार पर न सिर्फ एक देश न सिर्फ सारे विश्व में बाबा का कार्य चल रहा है। तो हम कहेंगे कि दादी जी के लीडरशिप के हिसाब से दादी ने इतनी प्रेरणादायी बातें बताई। जिससे आज विश्व की सेवायें भी चल रही हैं। जब दादी टीचर्स से मिलती थीं, बात करती थीं तो कहतीं कि आप मेरे फ्रेंड्स हो। दादी ये नहीं कहती थीं कि मैं आपकी मास्टर हूँ। तो उस फ्रेडशिप के नाते से बहुत ही समीप सम्बन्ध बनाकर दादी हमें पालना देती रहीं फिर साथ-साथ शिक्षा भी देती रहीं। फिर जब प्यार होता तो कोई भी बात स्वीकार करने को मन तैयार होता। – राजयोगिनी ब्र.कु. जयंती दीदी,अतिरिक्त मुख्य प्रशासिका,ब्रह्माकुमारीज़

सत्यता की मूर्ति थीं इसलिए निर्भय थीं दादी जब बॉम्बे में रहती थीं, हम भी बॉम्बे में ही रहते थे तो दादी किस रीति से ईश्वरीय संदेश देने के लिए उमंग और उत्साह के द्वारा नए-नए प्रोग्राम बनाके खुद भी बिज़ी रहती थीं और सर्व को बिज़ी रखती थीं क्योंकि उनको यही लगन थी कि हमें जो परमात्मा के द्वारा ज्ञान का प्रकाश मिला है, जिसके द्वारा हमारा जीवन सदा के लिए सुखी और शांत हुआ है, तो सारे विश्व में जो भी आत्मायें हैं, जो भी भाई-बहनें हैं उनको भी ये संदेश ज़रूर देना है। इसीलिए दादी जी सेवा में कभी भी थकती नहीं थीं। परन्तु अग्रसर होकर सबके आगे, सबका लीडर बनके वो सेवाएं करती रहती थीं। दादी के अन्दर सत्यता होने के कारण दादी निर्भय थीं। दादी भरी सभा में अपना अनुभव सुनाती थीं कि मैंने जीवन में एक बारी भी झूठ नहीं बोला, दुनिया में ऐसी कोई हस्ती नहीं होगी जो इस रीति से हज़ारों भाई-बहन बैठे हों और उस समय अपना अनुभव बताये कि मैंने जीवन में कभी भी झूठ नहीं बोला। क्योंकि वो सत्यता के ऊपर चलने वाली, सत्य परमात्मा की सच्ची-सच्ची सीता थीं। उसको परमात्मा पिता के साथ इतनी लगन थी और जो भी परमात्मा पिता, बापदादा उनको जो भी डायरेक्शन देते थे उन डायरेक्शनों को वो उसी समय अमल में लाती थीं। – राजयोगिनी ब्र.कु. संतोष दीदी,संयुक्त मुख्य प्रशासिका,ब्रह्माकुमारीज़

दादी की परख शक्ति गज़ब की थी अपनी पढ़ाई सम्पन्न करने के बाद 1969 में मधुबन में कॉलेज करने वाली बहनों की पहली टीचर ट्रेनिंग में अपनी लौकिक माँ के कहने पर मैं आ गई। मेरा लक्ष्य था कि मैं फिनैंशिली इंडिपेंडेंट रहूंगी, क्योंकि धन के लिए डिपेंडेंस ठीक नहीं। मैं जॉब करूंगी। लेकिन ट्रेनिंग में अच्छी पॉवरफुल क्लास मिली और फिर दादी ने कहा कि तुम कितना कमा लोगी! लेकिन मम्मा जैसे अगर आप कई आत्माओं के जीवन को प्रेरित करें, वे बाबा के यज्ञ में सहयोगी बनें तो उसका शेयर आपको मिलेगा। तो बात समझ में आई। फिर ट्रेनिंग पूरी करने के बाद हम वापस घर गये। मेरे पिता जी बहुत स्ट्रिक्ट थे। वे चाहते थे कि मैं आगे स्टडी करूं क्योंकि बाबा का भी डायरेक्शन था। फिर बड़ी दादी ने पिता जी को पत्र लिखे कि आपने आशा को बांधेली बना लिया है, मैंने पंछी भेजे थे कि ये वापस लौटकर आयेंगे लेकिन आपने पंछियों को पिंजरे में डाल दिया है। ऐसे दादी उनको लिखते रहते थे और आखिर दादी ने घर से मुझे बुला ही लिया। मैंने पोस्ट ग्रैजुएशन कम्प्लीट किया, पिता जी को संतुष्ट करने के लिए एक साल जॉब भी किया, सब दादी से पूछ के। और फिर दादी ने मुझे मधुबन में बुला लिया। मैं ये कहूंगी कि दादी निमित्त बने इतने सुंदर जीवन को देने के लिए। बाबा ने मरजीवा जन्म दिया किंतु जो आगे का जीवन बनना हुआ वो आदरणीय दादी जी के ही डायरेक्शन में, निरीक्षण में होता रहा है और आज दिन तक भी है। मैं दादी को कभी एब्सेंट नहीं समझती हूँ। दादी अव्यक्त रूप से सदा साथ हैं। अगर दादी की बातें मेरे साथ हैं तो दादी मेरे साथ हैं। – राजयोगिनी ब्र.कु. आशा दीदी,निदेशिका,ओआरसी

स्वभाव-संस्कार के मतभेद को सेवा में बाधा नहीं बनने दिया बहुत बड़े संगठन में बड़े प्रोग्राम होते रहते हैं, तो कई बार स्वभाव-संस्कार के कारण अनेक मत भी देखने को मिलती हैं। एक बार मैंने दादी द्वारा सेवा समाचार पूछने पर कहा कि दादी कई बार इतने स्वभाव संस्कार के विचारों के मतभेद होते हैं, तो क्यों हम ये बड़े प्रोग्राम करते हैं? दादी ने, मैं छोटी होते हुए जोकि मेरा रोल अनेक जगह जाने का होने के कारण दादी ने समझा कि इनको समझाना ज़रूरी है, तो मुझे दादी ने कहा कि देखो विचार भेद तो रहेेंगे, क्योंकि हर आत्मा की अपनी सोच है। हरेक के अपने-अपने संस्कार हैं। अगर हम ये स्वभाव-संस्कार की बात देखते रहेंगे तो हम कभी भी बड़े प्रोग्राम नहीं कर सकेंगे। इसलिए हमें कभी भी इन बातों को महत्त्व नहीं देना है। हमारा फजऱ् ये है, जो लक्ष्य बाबा ने दिया है विश्व की आत्माओं को संदेश देना, हमें उसी को महत्त्व देकर सभी के साथ मिलकर कार्य करना चाहिए। तो इससे मुझे महसूस हुआ कि देखो कि हम वैरायटी स्वभाव-संस्कार वाले होते भी दादी कितनी फोकस्ड थीं। अपने लक्ष्य पर केन्द्रित थीं कि हमें छोटी-छोटी बातों को माइंड करके सेवा को कभी रोकना नहीं चाहिए। क्योंकि हमारा मूल उद्देश्य जो है वो सेवा करना है। – राजयोगिनी ब्र.कु. गीता दीदी,वरिष्ठ राजयोग शिक्षिका

सेवाओं के साथ पालना करना भी सिखाया दादी ने 1976 में दादी ने मॉरीशियस से मधुबन में बुलाया क्योंकि मधुबन में विदेशी बहुत आ रहे थे। मुझे अनुभव हो चुका था विदेश में रहने का और विदेशियों की सेवा करने का। उन्होंने कहा कि अभी मधुबन में बहुत फॉरेनर्स आयेंगे इसलिए आपको यहां सेवा करनी है। तो 1976 से मैं मधुबन में हूँ दादी के कहने पर। लेकिन जब मैंने मधुबन में रहना शुरु किया तो एक दिन दादी से मिलते हुए मैंने उनसे कहा कि मैं यहां मधुबन में सेवा तो करती हूँ लेकिन मैं और क्या विशेष ध्यान दूं? तो दादी ने मुझे बहुत सुंदर बात कही। दादी ने मुझसे कहा कि शीलू, तुम टीचर तो बहुत अच्छी हो, ज्ञान बहुत अच्छा सुनाती हो, बहुत अच्छे लेक्चर देती हो, बहुत लोग प्रभावित होते हैं, विदेशी भी बहुत खुश होते हैं, लेकिन अभी तुमको एक काम और करना है। तो मैंने कहा कि दादी आप बतायें, तो दादी की एक विशेषता थी कि किसी की भी कमी-कमज़ोरी सीधा नहीं बोलती थीं। इसलिए मैंने कहा कि दादी आपने मेरी महिमा तो बहुत की लेकिन मेरी कोई कमी-कमज़ोरी हो तो वो भी बताओ। तो दादी ने कहा कि देखो, तुम टीचर बहुत अच्छी हो, लेकिन अब तुमको एक माँ की तरह सबको पालना देनी है। क्योंकि ये विदेशी आते हैं, उनको इस प्रकार की पालना चाहिए। बहुत प्यार चाहिए उनको। जितना आप उनको उस प्रकार का प्यार देंगे, बाबा की तरफ ले जायेंगे तो ये बाबा के पक्के बच्चे बन जायेंगे। क्योंकि मैं विदेशियों के साथ ही रहती थी, ट्रांसलेशन करना, ज्ञान सुनाना, क्लासेज़ कराना, यही मेरा पार्ट था मधुबन में। तो कैसे विदेशियों की सेवा करनी है और कैसे उनको बाबा के इतना नज़दीक लाना है, ये दादी ने हमें सिखाया। – राजयोगिनी ब्र.कु. शीलू दीदी,उपाध्यक्ष,शिक्षा प्रभाग

सेवाओं के नवीनतम प्रयोग को प्रोत्साहित कर व्यापक बनाया दादी को हमेशा नवीनता प्रिय थी। मैं अहमदाबाद में आई, बाद में पहला प्रोजेक्ट मैंने एक राजयोग शिविर का प्रारम्भ किया। 21मई, 1973 को और फिर वो तीन दिन के राजयोग शिविर का समाचार मैंने दादी को लिखकर भेजा। दादी के पास पत्र पहुंचते ही दादी ने मेरे को फोन करके बुलाया और कहा कि चन्द्रिका तुमने राजयोग शिविर का जो प्रयोग किया है वो ये हमारी सारी दादियां हैं, ये हमारी बड़ी दीदीयां हैं इनको भी तुम ये अनुभव कराओ। तो मुझे संकोच तो बहुत हुआ लेकिन दादी ने कहा ये मनोहर दादी तुम्हारी बाजू में बैठेगी और तुम्हें ये ज़रूर कराना है। दादी भी बीच-बीच में आकर बैठ जाती थीं फिर तीन दिन के अनुभव के बाद दादी ने मुझे कहा कि चन्द्रिका यहाँ बैठो तुम और ये सारे लेक्चर की बुक तैयार करके दो। वो तैयार करके दी तो फिर कहा कि अभी इसकी टे्रनिंग की बुक तैयार करके दो। दादी ने मुझे वहाँ बिठा दिया और मैंने दादी को सबकुछ लिखकर दिया। दादी ने उसी घड़ी उसकी लिथोकॉपी निकलवाई। और जो बहनें उस समय मिटिंग अर्थ आई हुई थीं उन सभी को तो उसी समय कॉपी दे दिया और बाद में पूरे भारत के सभी सेवाकेन्द्रों पर दादी ने वो राजयोग शिविर की पुस्तिका भेजी और सभी को प्रेरित किया। इतने तक ही नहीं फिर दादी ने पाण्डव भवन में एक राजयोग भवन खास बनवाया। और वहाँ पर विआईपी के राजयोग शिविर का प्रारम्भ किया। तो दादी का कितना फोकस था। बाकी हम तो संस्था में एक नई टीचर थीं, लेकिन दादी सेवा के प्रति बहुत प्रोत्साहित करती थीं। – राजयोगिनी ब्र.कु. चन्द्रिका दीदी,वरिष्ठ राजयोग शिक्षिका,अहमदाबाद

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