कलात्मक जीवन का सार ‘कृष्ण’

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‘कृष्ण’ आकर्षण शब्द से बना है और आकर्षित कौन करता है जो खुश हो, प्रसन्न हो और एकदम अलग हो। वही इस दुनिया में सभी का है और सब उसके हैं। राम जीवन है, कृष्ण कलाकार है, इन दोनों का मात्र एक ‘धारणा’ ही आधार है। अब एक शब्द हम पकड़ के चलते हैं, वो है धारणा। इन्होंने पूरे जीवन को एक ऐसी धारणा के साथ बांधा जो उनके चरित्र में व्याप्त है। आप उसी से सीखते हैं, आप उसी को सबको बताते भी हैं कि भाई, अगर जीवन सीखना है तो राम से सीखो, कृष्ण से सीखो। इनके जीवन को झाँककर देखो। इसीलिए शायद कृष्ण की झाँकी लगाई जाती है कि अलग-अलग परिस्थितियों को उन्होंने कैसे जीता, उनको जीत करके सबके सामने एक मिसाल पेश किया कि परिस्थिति को कलात्मक ढंग से कैसे जीता जा सकता है। आप हमेशा सुनते रहे होंगे कि कृष्ण सोलह कला सम्पूर्ण थे और उनके हाथ में बांसुरी हमेशा दिखाई जाती है। कोई ऐसा अस्त्र-शस्त्र नहीं दिखाया जाता। मतलब मन इतना शांत और निर्मल है कि वो चैन की बांसुरी बजा रहे हैं, ऐसा दिखाते हैं। आप देखो, जीवन में हमारे काम कब अच्छे होते हैं, जब हम अंदर से प्रसन्न और खुश रहते हैं और हमारी खुशी और प्रसन्नता का जो स्तर है उस स्तर से अगर हम किसी कार्य को अंजाम दें तो उस कार्य के अंदर बरकत होती है। और हर कोई जब उस कार्य को देखता है तो कहता है कि मन करता है इस कार्य को देखते रह जायें। मतलब कोई भी कार्य बोझ नहीं है। बस उसको करके उससे अलग होना मुख्य धारणा है। आज हम बहुत सारे कार्य एक साथ कर रहे होते हैं, लेकिन कार्य करने के बाद हम थकावट फील करते हैं या अच्छा नहीं लग रहा होता, कहते हैं हर दिन यही कार्य! मन खिन्न-सा हो जाता है। उसका कारण आपने ढूंढा है? उसका कारण क्या हो सकता है? कार्य को अपना न मानना पहला, दूसरा कोई न कोई आपके पास और हो जिसकी तुलना में वो कार्य बार-बार करना कि क्या ये मैं ही करूं! नवीनता भी हम चाहते हैं और करना भी नहीं चाहते हैं। जैसे आपके घर में कोई भी न हो तो आप कैसे हर कार्य कर लेते हैं जल्दी-जल्दी। वैसे ही दिखाया गया है कि कृष्ण बालपन से बाल लीला कर रहे हैं। लीला माना कार्य। लेकिन उसमें क्या सौ लोग लगे होते थे! चाहे वो कितने सारे राक्षसों का वध दिखाते हैं, लेकिन वे राक्षसों के साथ अकेले लड़ रहे होते थे, परिस्थितियों से अकेले लड़ रहे होते थे, लेकिन खुश होकर, बिना किसी को तंग किये। हम थकते ही इसलिए हैं कि हमारे साथ कोई न कोई तुलना में खड़ा होता है। कृष्ण की बाल लीला से बड़े होने तक की कहानी आप ध्यान से देखो या पढ़ो तो बिल्कुल आपको अपने जीवन से मेल खाती नज़र आयेगी। कृष्ण के चरित्र में एक और चीज़ दिखाई देती है कि वो कार्य करके कभी ये नहीं कहते कि ये मैंने किया। कहते, ये तो बस हो गया। इसका भाव समझते हैं कि जब व्यक्ति किसी कल्याण के लिए कोई कार्य करता, बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के लिए जब कार्य करता है तो न वो जताता है न बताता है। लेकिन यहां हम अपने स्व के रथ के लिए सिर्फ कार्य करते हैं माना स्वार्थ के लिए, तो इसलिए बताते और जताते हमारा जीवन दु:ख में निकल जाता। यही जीवन जीने की सबसे बड़ी कला है, यही जीवन की सबसे बड़ी धारणा है। हम सभी जीवन में सिर्फ इसी पुरुषार्थ को अपना लें कि हमें सिर्फ कल्याण के लिए ही कार्य करना है। जिसमें स्व-कल्याण, विश्व-कल्याण समाया हुआ हो। इसलिए पूरे कृष्ण जन्माष्टमी को बाल लीला के साथ जोड़ा जाता है कि खेल-खेल में सबको हँसाते, बहलाते, सबके साथ रहते, सबको खुश करते, बिना किसी को दु:ख पहुंचाये कार्य को किया और चले गये। इसीलिए कृष्ण की बाल लीला हर एक आत्मा की कहानी है। जब वो इस दुनिया में बिल्कुल डिटैच्ड अनुभव करता है, तो वो सभी का होता है और फिर जब वो कोई कार्य करता है तो माता-पिता को कितनी खुशी होती है! वो बच्चा रात को सोता है और भूल जाता है, सुबह कहो कि आपने ये कार्य किया तो कहेगा पता नहीं। क्या हमारी ऐसी स्थिति है? अगर नहीं है तो बनायें और इस जन्माष्टमी पर उसे अपने जीवन का अंग बनायें। तब जाकर सही मायने में कृष्ण को साकार सृष्टि पर हम अनुभव कर पायेंगे।

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