जब कोई हमारी प्रशंसा करता तो हम अति उत्साह में आकर वास्तविकता से परे हो जाते हैं। लेकिन हमें पता है कि हम कौन हैं, हमारी सच्चाई हमारे सिवाय और कौन सही रूप में जान सकता है! ऐसे मोड़ से जब हमें गुजरना होता है तब प्रशंसा होने पर न तो अति उत्साह में आना चाहिए और न ही आलोचना में नाराज़ होना चाहिए। क्योंकि ये तो जीवन का क्रम है। किन्तु हमें अपनी सच्चाई के साथ अपने आपको संभालते हुए वास्तविकता के साथ जीना चाहिए।
एक शहर में एक शिल्पकार रहता था। उसकी बनाई मूर्तियां इस प्रकार लगती मानो जीवंत व जागृत हों। उसे उसकी कला के लिए कई पुरस्कार मिले। उसे एक बार एक पत्र मिला, जो किसी ज्योतिषी का था। उसमें लिखा था कि इस बार उसे सर्वोच्च पुरस्कार ”अमृत कला अवॉर्ड मिलेगा।
कुछ दिनों बाद यह भविष्यवाणी सत्य साबित हुई। कुछ दिनों बाद फिर उसी ज्योतिषी का एक और पत्र मिला, जिस पर लिखा था कि अमुक तारीख को अमुक समय उसकी मृत्यु हो जाएगी। यह पढक़र वह बेचैन हो गया।
फिर उस शिल्पकार ने मृत्यु से बचने का रास्ता निकाला। उसने दिन-रात एक करके चार हूबहू, उसके जैसे दिखने वाली तथा जीवंत लगने वाली मूर्तियां बनाई। निश्चित तारीख को वह उन मूर्तियों के साथ, उनके ही समान खड़ा हो गया।
जब यमदूत लेने आए, तो वे चक्कर में पड़ गए। जब यमदूतों को कुछ समझ में नहीं आया तो उन्होंने यमराज को बुलाया। यमराज आए तो वह भी चकरा गए कि आखिर असली शिल्पकार कौन है? यमराज ने तुरंत ब्रह्मा जी का ध्यान किया और शिल्पकार की प्रशंसा शुरू कर दी। अपनी प्रशंसा सुनकर शिल्पकार खुश होता गया।
अंत में यमराज ने कहा- अगर वह शिल्पकार मिल जाए, जो इन कृतियों को बनाने वाला है तो मैं उसके चरण स्पर्श कर लूं। आखिर वह कौन है? बस इतना सुनते ही शिल्पकार बोला- मैं हूँ। बस यही गलती कर गया। वह प्रशंसा के क्षणों में संयम न बरत सका। यमराज ने तुरंत शिल्पकार को मृत्यु प्रदान कर दी।
प्रशंसा की प्राप्ति के लिए मनुष्य बहुत प्रयास करता है परंतु अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रखने पर, यह प्रशंसा उसके भीतर अहंकार को जन्म देती है। अंत में नुकसान ही होता है। प्रशंसा की प्राप्ति के क्षणों में जिस मनुष्य में संयम न हो, वह अधीर होकर अपना ही नुकसान करता है।
प्रशंसा पर न उत्साहित हो, न आलोचना पर नाराज़:– जहाँ तक संभव हो, वहाँ तक हमें प्रयास करना चाहिए कि हम प्रशंसा पर न तो अति उत्साहित हों और न ही नाराज़। बातों को सुनें-समझें तथा मनन-चिंतन के माध्यम से विश्लेषण करके आगे बढ़ें। जिस प्रकार हमारे लिए कड़वी दवा की आवश्यकता उतनी ही है, जितनी मीठे स्वादिष्ट आहारों की। इसलिए अपने मन का नियंत्रण किसी अन्य को क्यों दें? हर व्यक्ति हर पल यह क्यों चाहता है कि हर कार्य के लिए हमारी प्रशंसा करते रहें? जबकि स्वयं से बेहतर अपनी सच्चाई को कोई भी नहीं जान सकता है। अक्सर होता यह है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कार्य करे या बात कहे, उन्हें भली-भांति यह मालूम होता है कि इसमें कितनी सच्चाई है या कितना लाभकारी है? हम स्वयं भी अच्छी बातें या कार्य की पूर्णता आनंदित महसूस करने के साथ ही आत्म-संतुष्टि के बोध को प्राप्त करते हैं।
लोग दूसरों से प्रशंसा पाने की अंधी होड़ में लगे हैं:– हम प्रत्येक कार्य में दूसरों की प्रशंसा पाने की अंधी होड़ में लगे रहते हैं अर्थात् क्यों दूसरों की प्रशंसा पाने की अंधी होड़ में स्वयं की मूल भावनाओं का गला घोटने में लगे रहते हैं? जबकि हम यह बेहतर तरीके से जानते हैं और समझते हैं कि दूसरों की प्रशंसा को प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना, केवल स्वयं को झूठी तसल्ली देना है और अपने साथ धोखा करना है। लेकिन एक स्तर तक प्रशंसा हमारे लिए उत्साहवर्धन का कार्य करती है, फिर भी जब हम प्रशंसा पाने के लिए व्याकुल रहें तथा दूसरों से यह अपेक्षा करने लगें कि लोग हमारी शाबाशी के साथ, पीठ थपथपाते रहें, तब यह हमारे लिए एक मर्ज-सा बन जाता है जोकि बिल्कुल ठीक नहीं है। हम किसी भी हाल में अपनी सराहना और प्रशंसा प्राप्त करना चाहते हैं। लेकिन अगर हमें कभी अपेक्षित कर दिया जाए तथा हमें प्रशंसा न मिल पाए तो एक तरह से हम निराश हो जाते हैं। हमें स्वयं से पूछना चाहिए, क्या यह सही है? हमने अपने मन को, क्या बना लिया है कि मात्र प्रशंसा न मिलने के कारण, हमारा मन व्याकुल होने लगता है। यही बात हमारे जीवन के लिए दु:ख का कारण बनती जा रही है, फिर और अधिक जीवन को तनावग्रस्त क्यों बनाया जाए?
प्रशंसा मनुष्य को उदार बनाती है:- कहा जाता है कि प्रशंसा मनुष्य की शक्तियों का एक अचूक शस्त्र है जो न केवल बिगड़े हुए काम भी बना देता है बल्कि गैरों का दिल जीतने की क्षमता भी रखता है। सही समय पर, सही मात्रा में की गई प्रशंसा बहुत ही फलदायक होती है। परंतु देह-अभिमानवश अधिकांश लोग इस शक्ति का प्रयोग करना ही नहीं जानते।


