रमन करने वाले ‘राम’ बनो

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धीर-गम्भीर, अति मर्यादित, कुलदीपक, आर्यावर्त की शान, देवभूमि के अति विशिष्ट देवता, शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने वाले, विदेही अवस्था के साथ जुड़कर परमात्म प्रणय को अभिन्न अंग बनाने वाले का अगर जन्म होगा तो विशेष ही होगा।

विश्व में दो विशिष्ट देवता प्रचलित हैं, एक श्रीकृष्ण, दूसरे श्रीराम। कृष्ण के साथ जुड़ी है कृष्ण जन्माष्टमी और श्रीराम के साथ जुड़ी है रामनवमी। भक्ति मार्ग में श्री रामचंद्र जी को चौदह कला सम्पूर्ण दिखाते हैं और उनके हाथ में धनुष और तर्कश में तीर दिखाते हैं। कृष्ण को चंचलता के साथ जोड़ा जाता है अर्थात् जो कलात्मक ढंग से हर कर्म को करे और सबका मन मोह ले। और जिसको मोह भी न हो। तभी तो नाम मोहन पड़ा। ठीक उसी प्रकार श्री रामचंद्र को जीवन चरित्र के साथ जोड़ा गया, जीवन दर्शन के साथ जोड़ा गया। जो जीवन में है लेकिन जीवन को मर्यादित कैसे जीया जाये उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रत्यक्ष रूप से श्रीराम में नज़र आता है। राम जीवन है अर्थात् जो निरंतर एक भी धारणा और मर्यादा को ना तोड़ सभी के साथ तोड़(सम्बंध) निभाता है।
इस दुनिया में विकारग्रस्त मनुष्य अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के वश जो भी मनुष्य हैं उनके कर्म में न कहीं मर्यादा है और न ही कोई धारणा है। अगर राम के चरित्र को लिखित रूप में कहीं पढ़ते भी हैं तो उसको अपनी समझ के अनुसार प्रयोग में लाते हैं। कहते हैं, राम थे बहुत अच्छे लेकिन सीता को बाहर निकाल दिया। अब इसका क्या गलत इस्तेमाल होने लगा कि जब राम जैसा महान व्यक्तित्व श्री सीता को बाहर निकाल सकता है तो तुम क्या चीज़ हो। और उसमें एक चीज़ और टिप्पणी में आती है कि एक साधारण धोबी के कहने से राम के अंदर शंकालु प्रवृत्ति कैसे प्रकट हो सकती है! वो तो अति समझदार और सयाने थे। क्या लेखक द्वारा चरित्र का ऐसा वर्णन सुनकर हम सब भी तो उसी बहाव में बहे नहीं जा रहे! अगर इसे हम अपने जीवन के साथ जोड़कर देखें तो किसी और के कहने से क्या हम सबको बाहर निकाल देते हैं! हम भी तो देखते-परखते हैं कि बात क्या है। ऐसे थोड़े ही हम किसी को बाहर निकाल देंगे और जो धारावाहिक बना उसमें भी राम को उलझन में दिखाया गया कि जनता ऐसे कैसे बोल सकती है श्री सीता के लिए! तो रामचंद्रजी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। ये आज हम एक मानसिक कल्पना के आधार से इस कर्म को कर रहे हैं, लेकिन इसके पीछे हमारा स्वार्थ है, किंतु दोष हम मढ़ दे रहे हैं श्री राम पर।
आप अपने से सोचो कि दुनिया का, विश्व का इतना महानतम मानव, एक देवता ऐसा कर्म कर सकता है! हम सभी आज राम के जीवन चरित्र को देखकर उनसे कुछ ऐसा सीखें जिन्होंने पुत्र धर्म निभाया, पिता धर्म निभाया, पति धर्म निभाया, भ्राता धर्म निभाया, ऋषि मुनि तपस्वियों का मान रखा, सबको सम दृष्टि से देखा, त्याग की प्रतिमूर्ति बने, माता कैकयी के दोष लगाने पर भी उनका भाव और सम्मान कम न होना, उनको दोष न देकर अपने कर्म की भावी मानना और बड़ों की आज्ञा को सर्वोपरी रखना, यही तो जीवन चरित्र है। दिखाया गया है कि रावण दुश्मन है, फिर भी दस सिर वाले रावण अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार,ईर्ष्या, निंदा, घृणा, आलस्य और भय के बीच में रहते हुए उन्होंने इसको जीता। और उसके राज्य में रहने वाले जो परमात्मा को अपना मानते थे उनको राज्य भाग्य भी दिया।
तो हम सब आत्माओं की मानसिक दशा का वर्णन है, श्री राम का चरित्र। हम रह वैसे लंका जैसी नगरी में ही तो हैं जहाँ चारों तरफ विकारों का बोलबाला है। ऐसे विकारों के साम्राज्य में अगर हम परमात्मा राम के साथ रहना शुरु कर दें और श्री राम जैसा चरित्र भी साथ-साथ निभायें तो कुछ दिन में ही दशहरा यानी दस विकारों को हरा करके अपनी विजय पताका हम भी फहरा सकेंगे।
तो ”राम” आत्मा राम की कहानी है, जो है तो इस दुनिया में ही लेकिन सबके बीच में रहते हुए, सबको समाते हुए, सबको स्वीकार करना और उनके साथ चलना, यही आत्मा राम का जीवन चरित्र है जिसे चरितार्थ किया तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में। तो मैं क्यों न श्रीराम के चरित्र को मानसिक रूप से अपने अंदर उतारकर, विकारों को जीत कर नई दुनिया में जाने के लायक खुद को बनाऊं। तो ऐसा करने पर रामनवमी पर राम के जन्म के साथ हम आत्मा राम का भी नया जन्म हो जायेगा।

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