बाप का नाम याद आवे तो अपने को मास्टर ज़रूर समझो। नाम तो सभी को याद कराते हो। कितनी बार बाप का नाम मन से व मुख से उच्चारण करते होंगे। तो बाप के नाम जैसा मैं भी मास्टर त्रिमूर्ति शिव हूँ- यह स्मृति में रहे तो सफलता होगी। तो सदा सफलतामूर्त बनो। अभी सफलता पाने का समय नहीं। अगर 10 बार सफलता हुई, एक बार भी असफल हुए तो उसको असफलता कहेंगे। तो कर्तव्य और स्वरूप दोनों साथ-साथ स्मृति में रहें तो फिर कमाल हो। नहीं तो होता क्या है – मेहनत जास्ती हो जाती है, प्राप्ति बहुत कम होती है। और प्राप्ति कम कारण ही कमज़ोरी आती है। उत्साह कम होता है, हिम्मत उल्लास कम हो जाता है। कारण अपना ही है। अपने पाँव पर स्वयं कटारी चलाते हैं। इसलिए जबकि अपने आप जि़म्मेवार हैं, तो सदैव अटेन्शन रहना चाहिए। तो आज से बीती को बीती कर के, स्मृति से अपने में समर्थी लाकर सदा सफलतामूर्त बनो। फिर जो यह अन्तर होता है- आज उमंग-उल्लास बहुत है, कल फिर कम हो जाता है, यह अन्तर भी खत्म हो जावेगा। सदा उमंग-उल्लास और सदा अपने में प्राप्ति का अनुभव करेंगे। माया को, प्रकृति को दासी बनाना है। सतयुग में प्रकृति को दासी बनाते हैं तो उदासी नहीं आती है। उदासी का कारण है प्रकृति का, माया का दास बनना। अगर उनके दास बने ही नहीं तो उदासी आ सकती है? तो कब भी माया के दास व दासी न बनना। यहाँ जास्ती माया व प्रकृति का दास बनेंगे तो उनको वहाँ भी दास-दासी बनना पड़ेगा। क्योंकि संस्कार ही दास-दासी का हो गया। यहाँ दास भी रहा, उदास भी रहा और वहाँ भी दास बनना- फायदा क्या! इसलिए चेक करना है- उदासी आई तो ज़रूर कहाँ माया का दास बना हूँ। बिगर दासी बने उदास नहीं हो सकते। तो पहले चाहिए परख, फिर परिवर्तन की भी शक्ति चाहिए। तो कब भी असफलतामूर्त न बनना। वह बनेंगे आपके पिछली प्रजा और भक्त। अगर विश्व का राज्य चलाने वाले भी असफल रहे तो सफलतामूर्त बाकी कौन बनेंगे!