शास्त्रों में परमात्मा को सर्वव्यापी कहने का भाव

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आज देखो प्रकृति के अन्दर भी ये गुण है कि अग्नि के अन्दर लोहा रखो तो अग्नि के संग में जब लोहा आता है तो वो भी अग्नि के समान लाल हो जाता है। संग का रंग। इसी तरह मनुष्य भी थोड़े दिन किसी के संग में रहता है ना तो उसे भी संग का रंग लग जाता है। मनुष्य तो छोड़ो पशु-पक्षी को भी संग का रंग लग जाता है। वो कहानी याद आती है कि एक शिकारी दो तोते पकड़ कर ले आया और बाजार में बेचने बैठा। एक तोते को महात्मा अपने आश्रम पर ले गये, दूसरे तोते को एक बदमाश अपने अड्डे पर ले गया। थोड़े दिन के बाद देखा गया कि जो तोता महात्मा जी के आश्रम पर गया था वो सुबह-सुबह राम-राम बोल रहा था, और जो तोता बदमाश के अड्डे पर गया था वो तोता सुबह-सुबह गालियां दे रहा था। इसी तरह अगर परमात्मा हम सब की बाजू में बैठा है, पारस है और उस पारस के बाजू में बैठने के बाद भी हम दिन-प्रतिदिन गिरते ही गए, अधोगति होती गई ये हो सकता है क्या! ये तो परमात्मा का सबसे बड़ा अपमान कहेंगे कि उसके बाजू में बैठने के बाद भी उसके अन्दर इतनी क्षमता नहीं है कि हमें पारस बना सके! तो बैठने का कोई मतलब नहीं। तो बात आती है सर्वव्यापी की, कहते ये बात शास्त्रों में भी आती है, तो क्या शास्त्र गलत हैं? नहीं शास्त्र गलत नहीं हैं, लेकिन शायद शास्त्रों में जिस भाव से लिखा गया है उस भाव को हमने समझा ही न हो, ये तो हो सकता है? शास्त्र किसने लिखे? ऋषि मुनियों ने लिखे। और ऋषि मुनियों ने ये शास्त्र किस आधार पर लिखे? अनुभव के आधार पर। उन्होंने ईश्वर की जो अनुभूति की, तो उस अनुभूति को शब्दों में बांधने का प्रयत्न किया। लेकिन वास्तव में अनुभूति को शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। और इसीलिए मनुष्य ने कहीं न कहीं मिसअंडरस्टैण्ड कर लिया, कुछ का कुछ समझ लिया।

जिस तरह से कहा जाता है कि पहले के ऋषि-मुनि जो थे वो जब साधना करते थे तो समय के अंतराल से गुजर सकते थे। और जब कलिकाल को देखते थे तो कितना घोर पाप होगा। मनुष्य को पाप कर्म से बचायें कैसे? तब उन्होंने शास्त्रों में ये बात लिखी कि हे मानव! तू जो पाप कर रहा है तो ये मत समझना कि तूझे कोई देख नहीं रहा,क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी है, कण-कण में है वो तूझे देख रहा है। अन्दर में भावना जागृत करने का प्रयत्न किया। ताकि मनुष्य पाप-कर्म न करे। जिस तरह बच्चा जब घुटनों के बल चलना सीखता है तो वो घड़ी-घड़ी बाहर जाने की कोशिश करता है और उस समय माँ को बहुत ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं रास्ते पर न निकल जाये। तो माँ उस बच्चे को रास्ते तक ले जायेगी। बाहर एक कुत्ता दिखायेगी, एक गाय दिखायेगी और कहेगी कि अगर बाहर गया ना तो ये कुत्ता उठा ले जायेगा तूझे, ये गाय उठा ले जायेगी। माँ खुद भी समझती है कि गाय कोई उठाकर ले जाने वाली नहीं है। लेकिन बच्चे की सुरक्षा उसके लिए प्रथम है। इसलिए हम ये नहीं कह सकते कि माँ ने झूठ क्यों बोला?
फिर दुबारा जब वो बच्चा घुटने के बल दरवाजे तक जाता है जैसे ही कुत्ते को, गाय को बाहर देखता है तो वो अन्दर आ जाता है। और खुशी प्रगट करता है कि मैं सुरक्षित हूँ, लेकिन वही बच्चा अगर थोड़ा बड़ा हो जाये, चार-पाँच साल का हो जाये उसके बाद उसको कह के देखो कि बाहर गया तो कुत्ता उठाकर ले जायेगा। हँसेगा अपनी माँ पर। मेरी माँ कैसी है इतना भी नहीं समझती है। वो हँसता हुआ बाहर चला जाता है और कुत्ते के बच्चे को उठाकर घर के अन्दर ले आता है, लो मैं ही लेके आ गया। ठीक इसी तरह ऋषि-मुनियों ने भावना बिठाने का प्रयत्न किया था ताकि मनुष्य पाप कर्म न करे।

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