योग माना आत्म-निर्भर जीवन

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आज हम स्वयं ही बिखरे हुए हैं, क्योंकि हम हर चीज़ बाहर से देखते हैं। दूसरे का सम्बंध, दूसरे से अपेक्षायें, दूसरे के आधारित व्यवहार, सब पर हम पराधीन हो गये। माना हम बाहरी तत्वों से अपना जीवन चला रहे हैं, व्यतीत कर रहे हैं। परंतु योग इन सब बिखराव को जोडऩे का कार्य करता है, माना हमें स्वयं से जोड़ता है। जब हम स्वयं से जुडऩे की बात करते हैं तब हम स्वयं का आत्मावलोकन करते हैं, आत्मनिरीक्षण करते हैं, आत्मा को प्रशिक्षित करते हैं और परीक्षण करते हैं। जैसे हम शांति से बैठते हैं और अपने को निहारते हैं तो हमारा स्वरूप हमें दिखाई देता है कि मैं अति सूक्ष्म, ज्योति स्वरूप चैतन्य आत्मा हूँ। फिर जब हम अपने अंदर झाँकते हैं तो स्वयं की ऊर्जा यानी कि मेरे में मेरी अपनी शक्तियों, क्षमताओं, योग्यताओं और प्रभु-प्रदत्त विशेषताओं का हमें एहसास होता है। हमें महसूस होता है और अनुभव होता कि मेरे में ये एबिलिटीज़ हैं, मेरा स्वरूप ये है तो मैं ये कर सकता हूँ, ये भाव प्रबल होता है। प्रबल होने के कारण फिर हम आत्मा में निहित उन योग्यताओं की वास्तविकताओं पर चलने की कोशिश करते हैं यानी कि प्रशिक्षित करते हैं, प्रयास करते हैं। और व्यवहार में हम इनका उपयोग और प्रयोग भी करते हैं। जैसे पहले हमारे व्यवहार में उत्तेजित होना, छोटी-छोटी बातों में रिएक्ट करना, जल्दबाज़ी करना, गुस्सा या अशांति की आदतें थीं, लेकिन अपने वास्तविक स्वरूप का एहसास होने पर हमें ये समझ में आया कि मैं स्वयं में शांत और शक्तिशाली हूँ, फिर उसपर केंद्रित होकर हम व्यवहार करने लगते हैं। माना कि हम अपने स्वरूप और अपने में निहित शक्तियों को व्यवहारिक जीवन में ढ़ालते हैं अर्थात् हम अपनी शक्तियों से जुड़ते हैं। इसी को ही योग कहते हैं। आज तक हम बाह्य परिस्थिति, प्रभाव, कठिनाइयों, मुश्किलों के प्रभाव में आकर एक्शन करते रहे, परंतु ये हमें पराधीन करते रहे अर्थात् हमें स्वयं से विमुख करते रहे। परिणामस्वरूप हम उत्तेजित हो जाते थे, चिड़चिड़े हो जाते थे, तनाव में आ जाते थे। माना कि हम असहज महसूस करते थे। अर्थात् एक प्रकार से हम पराधीन जीवन जीते रहे। दूसरे शब्दों में कहें तो हम आत्म-निर्भर नहीं परा-निर्भर रहे। योग हमें स्वयं से जोड़ता भी है और स्वयं की ऊर्जा से ओतप्रोत भी करता है।
पर ये सब होगा तब जब उसको बारंबार अभ्यास में लायेंगे, बारंबार उसे निहारेंगे और एबिलिटीज़ को कॉन्शियस में डालते रहेंगे। तब हम जीवन में उसका उपयोग और प्रयोग करेंगे और उसका सकारात्मक प्रभाव दूसरों के ऊपर भी पड़ेगा। यानी कि हम आत्मनिर्भर बनेंगे। हमें आत्म शक्तियों को और ज्य़ादा प्रभावी ढ़ंग से व्यवहारिक रूप देने के लिए परमसत्ता परमेश्वर परमपिता के साथ भी जुडऩा परमावश्यक है। और उनके साथ अपने सम्बंध को भी प्रगाढ़ करना होगा। और उस वास्तविक सम्बंध के साथ सहजता से हम हर बातों को, हर आई परिस्थितियों को हैंडल कर सकेंगे। क्योंकि आज के व्यवस्था में सब तमोगुणी हैं और हमें सतोगुणी रहना असंभव लगता है, ऐसे में परमात्मा के साथ जुडऩे से हम सशक्त होंगे यानी कि अपनी ऊर्जा के ऊपर निश्चय और विश्वास के साथ उसको व्यवहारिक रूप देने में सबल होंगे, समर्थ होंगे। परमात्मा से जुडऩे के कारण हम अपना वास्तविक जीवन जियेंगे। इसमें योग हमें सहयोग करता है, हमारी मदद करता है।

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