हम हमेशा देखते हैं कि दूसरे हमसे अच्छे हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि उनके लिए हम भी दूसरे हैं। इसका अर्थ ये हुआ कि हम सभी को किसी और को देखकर अपने वजूद का आंकड़ा लगाना या वजूद को तोलना बुद्धिमानी नहीं है। क्योंकि ये पूरा विश्व एक ग्लोबल चेतना या कॉन्शियसनेस के आधार से चलता है और उसकी एक यूनिट हम हैं जो सबसे छोटी इकाई है। इसका मतलब ये हुआ कि हर कोई अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि हर एक इकाई जो खुद के बारे में सोच रही है, बोल रही है, कर रही है वो ग्लोबल कॉन्शियसनेस में प्रवेश कर रहा है। विश्व स्तर पर उसका प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए समाज से हम नहीं हैं, हमसे समाज है।
किसी भी कार्य के लिए, किसी भी वस्तु-स्थिति के लिए हम सभी समाज को दोष देते हैं लेकिन समाज तो अपने आप अस्तित्व में ही नहीं होता। जब हम हैं तो समाज है, हम नहीं हैं तो समाज भी नहीं है। इसलिए अस्तित्व हमारा है, तो समाज का है। इसलिए समाज एक अमूर्त धारणा है, अमूर्त का अर्थ होता है नॉट-विजि़बल। जो दिखाई नहीं दे रहा है, लेकिन है। जैसे समाज सम्बंधों से बनता है, लेकिन सम्बंध आप देख नहीं सकते। जैसे एक माँ और बेटी साथ में जा रहे हैं, आपको उनके बारे में नहीं पता तो आप आंकड़ा नहीं लगा सकते कि ये उसकी बेटी होगी या कहेंगे कि ये बुआ की बेटी हो सकती है, किसी और की बेटी हो सकती है क्योंकि सम्बंध दिखाई नहीं दे रहा, बताना पड़ता है। इसलिए समाज भी दिखाई नहीं पड़ता। तो समाज, सामाजिक सम्बंधों का ताना-बाना है। इसलिए हम सबको समाज की जो पहली इकाई है, पहली यूनिट है, जो व्यक्ति है, वो एक चेतना है और वो चेतना पूरे विश्व की चेतना की पहली सीढ़ी है। जैसे किसी छत पर चढऩे के लिए सीढ़ी जब बनाई जाती है तो अगर उस सीढ़ी की पहली सीढ़ी टेढ़ी, उबड़-खाबड़ या ऊपर-नीचे हो जाए तो चढऩे वाला क्या सोचेगा, पहला थॉट क्या आयेगा कि क्या बना दी सीढ़ी! ये तो ऐसा लग रहा है कि कहीं गिर ही न जायें! अब ये सीढ़ी हमारे विचारों की है। जिसको हमनें सोचा नहीं भी है, अभी उसकी शुरुआत नहीं भी हुई है तो भी उसका भविष्य हमें दिखने लग जाता है। इसीलिए ग्लोबल कॉन्शियसनेस माना ही एक-एक यूनिट, एक-एक इकाई जो मनुष्य है, वो पूरे समाज की मान्यताओं, धारणाओं की ऊँचाई मांपने का एक पैमाना है। कैसा समाज होगा, आगे की उसकी स्थिति कैसी होगी, ये सब एक इकाई ही तय करती है।
इसलिए समाज की हर एक इकाई माना हर एक मनुष्य का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है समाज को बनाने में। इसलिए यूनिट को ठीक करो, इकाई को ठीक करो, पहली सीढ़ी को ठीक करो, पहले पायदान को ठीक करो तो जो उसपर पहला कदम रखेगा वो भी उसी लेवल से समाज को देखेगा और समाज को बेहतर बनाने में अपना योगदान भी देगा।
इसी थीम या इसी सिद्धांत के साथ निराकार परमात्मा 88 वर्षों से हर एक मनुष्य के अंदर दैवी गुणों की परिकल्पना को साकार कर रहे हैं। जो अब एक कल्पना मात्र ही नहीं रही, बल्कि उसका रूप ले चुकी है। तो क्या आप भी इस यूनिट का हिस्सा बनना चाहेंगे?