‘ममत्व’ महान नहीं बनने देता

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कर्म भी करें और उसमें ममत्व भी न रहे, ऐसा कर्म हो सकता है? हम कई बार कहते हैं, नेकी कर दरिया में डाल। दूसरी ओर हम ये भी कहते हैं जैसा कर्म होगा वैसा फल अवश्य मिलता है। तो भला कर्म करने पर उसके बदले कुछ आश न रहे, ये कैसे हो सकता है! कर्म और उसका प्रतिफल उसकी छाया की तरह है। वो मिलता ज़रूर है। बिना कर्म कोई रह भी नहीं सकता। तब भला हम उसके फल से वंचित कैसे रह सकेंगे! अब उसका सही ज्ञान या समझ क्या है ये जानने की कोशिश करते हैं।
आजकल व्यक्ति कोई क्रांतिकारी कर्म करता है तो उसकी महिमा होती है। मान-सम्मान समाज में होता है। किंतु वे गायन योग्य तो बन जाते हैं लेकिन पूजनीय नहीं बन पाते। पूजनीय बनने का आधार श्रेष्ठ, असाधारण,अनुकरणीय और आदर्श कर्म है। हम सभी कर्म करते हैं लेकिन उसके पीछे कहीं न कहीं ममत्व बना रहता है। वो बहुत ही सूक्ष्म है जो हमें महान बनने से दूर करता है। जैसे हम कुछ करते हैं तो उसके बदले हमारा नाम हो, मान हो, प्रतिष्ठा हो, शान हो, यह अहम सूक्ष्म रूप में छिपा रहता है। मैं-पन के ये भाव महान बनने से वंचित करते हैं। लोगों की नज़रों में तो हम महान या गायन योग्य बन जाते हैं किंतु पूजनीय नहीं बन पाते क्योंकि हम कर्म के पीछे उसके बदले कुछ न कुछ पाने की इच्छा का भाव बना रहता है। इच्छा भाव उस लक्ष्य तक पहुंचने में असमर्थ बनाता है।
परमात्मा ने हमें बहुत ही सुंदर तरीके से बताया है कि कर्म करते कैसे ममत्व से मुक्त रहें, कैसे उसे व्यवहारिक रूप देते हुए परम, श्रेष्ठ बनें, इसके लिए वे कहते हैं कि कोई भी कर्म साधारण या असाधारण बनाना आपके हाथ में है। उसका ज्ञान वे हमें देते हैं। कर्म तो करेंगे ही लेकिन कर्म में कुछ पाने की आश का भाव जिसको हम ममत्व भाव कहते हैं, उससे कैसे बचा जाये? इसमें हमें ध्यान रखना है कि हमारा कोई भी कर्म हमारे मनोभाव की पवित्रता को दूषित न करे। आप इतना छोटा-सा ध्यान रखेंगे, अटेंशन रखेंगे तो आप स्वयं ही श्रेष्ठ भाग्य के निर्माता वही कर्म करते हुए बन जायेंगे। इसलिए परमात्मा ने कभी ये नहीं कहा कि तुम कर्म-सन्यासी बनो। लेकिन कर्म करते हुए ममत्व भाव न रखें, ये बताया है। आजकल लोग धन-उपार्जन के लिए सुबह से रात तक लगे रहते हैं। जिसके फलस्वरूप वे धन तो कमाते हैं लेकिन अपने परिवार, बच्चों की परवरिश, उस सुख से वे वंचित हो जाते हैं। कमाने का भूत इतना सवार हो जाता है जैसे बंदर की मु_ी से चना नहीं छूटता, उसी तरह दिन-रात कमाने के चक्रव्यूह में व्यक्ति फंसा रहता है। हम पूजनीय की दौड़ में आगे बढऩा चाहते हैं, तो हमें वो प्रैक्टिस हमारे जीवन में अविरत, निरंतर करते रहना चाहिए जिससे अपना कर्म अलौकिक बनता रहे। उस बारीकी व सूक्ष्मता को अपने ज़हन में हमेशा ज्वलंत बनाये रखना चाहिए, ये ध्यान रखना है। उसके फलस्वरूप हम महान के साथ पूजनीय बनेंगे, दूसरों के आदर्श और प्रेरक भी बनेंगे।

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