हमारे संस्कार हमारी एक्टिविटी, दृष्टि और शब्दों को प्रभावित करते…
अगर हमारे अन्दर यह हो कि बाबा मिल गया, सब मिल गया, अभी हमें कुछ नहीं चाहिए। योगी जीवन ही सर्वश्रेष्ठ जीवन है। योग से सब सिद्धियां स्वत: मिल जायेंगी, प्रकृति दासी हो जायेगी। जब यह बुद्धि में रहता तो तृष्णायें खत्म हो जाती हैं।
जैसा कि पिछले अंक में आपने पढ़ा कि जब तक त्याग की वृत्ति प्रबल नहीं है, तब तक तपस्या की स्टेज निखर कर नहीं आ सकती। अगर कहीं पर भी हमारा मन उलझा हुआ होगा तो वह अपनी तरफ खीचेंगा और गहरे अनुभव नहीं हो पायेंगे। अब आगे पढ़ेंगे…
तृष्णा : आसक्ति और तृष्णा में भेद है। तृष्णाओं का संबंध कर्मेन्द्रियों से नहीं होता। हम कई प्रकार से तृष्णायें रखते हैं। सोचते हैं केवल हमारा ही नामाचार हो, हमारा विशेष अधिकार हो, प्रभुत्व हो। सर्व अधिकार हमारे ही हों, दूसरा कोई उसमें प्रवेश ही न प्राप्त कर सके। हम चाहते हैं कि सब लोग कहें हम बड़े कुशल हैं, कार्य करने में सक्षम हैं। यह जो मनोवृत्तियां रहती हैं, यही तृष्णा का रूप है। इसका भवन इतना बड़ा है तो हमारा भवन इससे बड़ा होना चाहिए, इसकी डेकोरेशन ऐसी है तो हमारी डेकोरेशन इससे भी ज्य़ादा सुन्दर होनी चाहिए। तृष्णाओं की अभिव्यक्तियां अनेक प्रकार की हैं। जहाँ तृष्णा होती है, वहाँ सेवा भाव कम होता है। हमारी कॉन्शियस शिवबाबा के बजाय यही होती है कि ब्राह्मण संसार में हमारी महिमा हो, बड़ों तक हमारी बात पहुंचे। इन विचारों के कारण न तो हम लाइट के कार्ब में रहते और न ज्वाला स्वरूप की स्थिति का अनुभव कर सकते। इसी स्थूल कार्ब में आ जाते हैं। तो हम चेक करें कि हमारी तृष्णायें तो नहीं हैं, जो हमें पकडक़र रखे हों और संगमयुग की जो प्राप्तियां हैं उससे हमें वंचित कर दें? तृष्णाओं से अनेक संघर्ष पैदा होते हैं फिर उन्हीं संघर्षों में उलझ जाते हैं और नीचे आ जाते हैं। फिर हम बाबा को बीच में ले आते हैं, अपने साथ बाबा का नाम जोड़ देते हैं। लेकिन सूक्ष्म में भावना यही रहती कि हमने यह किया और लोग कहें कि आपने यह बहुत बढिय़ा किया। जब तक कोई ऐसा न कहे, तब तक खुशी नहीं होती। फिर तृष्णा का परिणाम होता है- असन्तुष्टता। तृष्णा पूरी नहीं होगी तो मन असन्तुष्ट होगा। किसी न किसी एक्टिविटी में नाराज़गी का हाव-भाव प्रगट होगा- चाहे वह सूक्ष्म में रहे, चाहे वह प्रबल रूप बन डिस-सर्विस का कारण बने। सन्तुष्टता के बिना योग ठीक नहीं रहता। फिर अन्दर ही अन्दर उबलते रहेंगे कि यह व्यक्ति अन्याय करता है, यह तो हमारे पीछे ही पड़ा है, यह स्नेह नहीं देता। तो जब हम किसी से असन्तुष्ट होते हैं तो वे भाव योग की परफेक्ट स्टेज बनने नहीं देते। योग का सन्तुष्टता के साथ बहुत गहरा कनेक्शन है, जिस दिन सन्तुष्टता का मूड होगा, उस दिन योग अच्छा लगेगा। जब मानसिक रूप से थके हुए होंगे तो कभी योग लगेगा नहीं। यह तृष्णा का परिणाम है। अगर हमारे अन्दर यह हो कि बाबा मिल गया, सब मिल गया, अभी हमें कुछ नहीं चाहिए। योगी जीवन ही सर्वश्रेष्ठ जीवन है। योग से सब सिद्धियां स्वत: मिल जायेंगी, प्रकृति दासी हो जायेगी। जब यह बुद्धि में रहता तो तृष्णायें खत्म हो जाती हैं। योग ठीक हो जाता तो न कोई हमारा अपमान करता, न विघ्न डालता, न दुव्यर्वहार करता। पराकाष्ठा की स्टेज जब प्राप्त हो जाती है तो सब तूफान खत्म हो जाते हैं। लेकिन हम वह न करके पहले तृष्णाओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं तो उसका परिणाम यह होता कि हम योग का गहरा अनुभव नहीं कर पाते।