परमपिता परमात्मा के अवतरण की आवश्यकता क्यों…!!!

0
49

ये तो ज़ाहिर-सी बात है कि कोई भी पिता अपने बच्चे को ऐसा नहीं देख सकता। ऐसे ही हमारे परमपिता परमात्मा निराकार शिव ज्योतिर्बिंदु हम सभी आत्माओं को कष्ट में कैसे देख सकते हैं! इसलिए वो हम सभी को शक्ति देने के लिए इस धरती पर अवतरित होते हैं। और कहा जाता है कि जैसे लौकिक पिता अपने बच्चे को कुछ कहे और वो बच्चा उसका कहना मान ले तो उसका पिता उसे सबकुछ दे देता है। ऐसे ही परमपिता हम सभी बच्चों का आह्वान करके कहते हैं कि आप सिर्फ और सिर्फ मेरी मत पर चलो, मुझे प्यार से याद करो, तो मैं अपना सबकुछ आपको दे दूंगा, अर्पण कर दूंगा।

धरा पर देने पैगाम…. आया खुद शिव भगवान
जैसे कहा जाता है कि आपको अगर अपने बारे में किसी को बताना हो तो लोग जो उन्हें बतायेंगे आपके बारे में वो पूरी तरह से स्पष्ट नहीं होगा। लेकिन आप जो बतायेंगे वो सबको भायेगा, स्पष्ट होगा। इसलिए परमात्मा शिव निराकार खुद आकर अपना परिचय देते हैं। इसीलिए उनको खुदा भी कहते हैं। सभी ने उनके बारे में बताया ज़रूर लेकिन थोड़ा-थोड़ा, अपने अनुभवों से, लेकिन कभी तो उनका अवतरण हुआ है, तभी तो उनकी यादगारें हैं, इसलिए उनको स्वयं आकर अपना परिचय देना पड़ता है। उनका नाम स्वयंभू भी है। इसलिए वो स्वयंभू निराकार परमपिता परमात्मा हम सभी को फिर से अपना बनाकर ले जाने आये हैं अपने घर। चलना चाहते हैं आप सभी? तो बस एक काम करना है, मुझ परमात्मा को मैं जो हूँ, जैसा हूँ उस रूप में याद करना है। अभी तक जो आपने याद किया वो मूर्तियों को याद किया, मंदिरों में जाकर बैठे, यज्ञ, तप, उपवास किया। वो एक साधन है, और वो साधन शरीर के सम्बंधों के साथ जुड़ा हुआ है। लेकिन मैं तो निराकार परमात्मा हूँ, मुझे पाने के लिए आपको भी खुद को निराकार बनाना पड़ेगा।


‘व्रत’ और ‘उपवास’: सही रूप में मानने से लाभ
अब व्रत और उपवास की ही बात ले लीजिए। मास अथवा वर्ष में एक रात्रि को भोजन न करना अथवा मौन धारण कर लेना, कुछ न कुछ तो लाभ इसमें भी है ही परन्तु आहार केवल मुख के भोजन को नहीं कहते। हरेक शरीरेन्द्रिय का अपना-अपना अलग-अलग आहार है। मुखेन्द्रिय यदि भक्षण करती है तो श्रवणेन्द्रिय श्रवण, दर्शनेन्द्रिय(आँख)दर्शन। अपने-अपने विषय को ग्रहण करना इनका आहार ही है। और अभक्ष का भक्षण न करना व्रत है। प्रतिज्ञा ही का नाम तो व्रत है। जब हम किसी वर्ज्य अथवा निषिद्ध को न करने की प्रतिज्ञा करते हैं तो गोया हम दूसरे शब्दों में व्रत लेते हैं। ऐसा व्रत एक दिन के लिए ही क्यों? वर्ष के 364 दिन तो मन को व्रत तोड़ कर निव्रत होकर रहने की छूट हो और एक दिन वह व्रति बन जाए- यह तो गोया, ‘100 चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’ वाला किस्सा है। इसी प्रकार आगे पीछे तो मन में विषय-विकार वास करे और एक दिन अथवा एक रात्रि को क्रउपवासञ्ज करे अथवा शिव में निवास करे तो उसमें लाभ भी क्षणिक और अल्प एवं न्यून ही होगा। शिव बाबा भोले भण्डारी से एक कण दाना ही मिलेगा। वास्तविक उपवास तो ज्योतिस्वरूप शिव का मन में स्थायी वास ही है। प्रेम द्वारा मन का शिव के निकट होना ही उपवास है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें