शास्त्रों और पुराणों में भी परमात्म अवतरण का जि़क्र

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नाहं प्रकाश: सर्वस्य, योगमायासमावृत:।
मूढ़ोऽयं नाभिजानाति, लोको माम् अजम् अव्ययम्।।

गीता के अध्याय 7, श्लोक 26 में परमात्मा के जन्म रहित और देह रहित होने का पूर्ण प्रमाण है। उसमें परमात्मा ने ही स्वयं बताया है कि अव्यक्त शक्ति से आवृत मैं परमात्मा सबको प्रत्यक्ष नहीं हूँ। अजन्मा, अशरीरी, अव्यय, अविनाशी, मुझ ईश्वर को ये मूढ़ आत्मायें अर्थात् ज्ञानहीन आत्मायें नहीं जानती हैं। इस तरह से परमात्मा ने बताया है कि मुझे जानने के लिए एक दिव्य नेत्र की आवश्यकता है, एक दिव्य बुद्धि की आवश्यकता है और वो स्वयं मैं ही प्रदान करता हूँ।

शिव पुराण में भी लिखा है कि – भगवान शिव ने कहा – ”मैं ब्रह्मा जी के ललाट से प्रगट होऊँगा।” आगे लिखा है कि क्रक्रइस कथन के अनुसार समस्त संसार पर अनुग्रह करने के लिए शिव ब्रह्मा जी के ललाट से प्रगट हुए और उनका नाम ” रुद्र” हुआ।” शिव पुराण में यह भी लिखा है कि ” जब ब्रह्मा जी द्वारा सतयुगी सृष्टि रचने का कार्य तीव्र गति से नहीं हुआ और इस कारण वह निरुत्साहित थे, तब शिव ने ब्रह्मा जी की काया में प्रवेश किया, ब्रह्मा जी को पुनर्जीवित किया और उनके मुख द्वारा सृष्टि रची।”

मन्मना भव मदभक्तों, मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते, प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।
गीता के अध्याय 18, श्लोक 65 में परमात्मा ने बताया है कि मनुष्य आत्माओं का कैसे उद्धार होगा। कैसे वो मेरे पास आयेंगे, तो उसमें लिखा है कि मुझ परमात्मा ईश्वर में ही मन रखो। मुझ परमात्मा ईश्वर में ही प्रीत रखो। मुझ परमात्मा ईश्वर की ही आराधना करो। मुझ परमात्मा ईश्वर को ही नमस्कार करो तब मुझ परमात्मा को तुम आत्मा प्रिय होंगे। तुम प्रिय आत्मा को मैं ईश्वर प्रतिज्ञा कर सच कह रहा हूँ। मुझ परमात्मा को तुम आत्मा प्राप्त करोगे। ये परमात्मा के द्वारा ही कहा गया है कि अगर हम ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से परमात्मा के नज़दीक होंगे।

परमात्मा को कैसे पहचाना जाए…!!!

जैसे एक जौहरी के पास परखने की कसौटी होती है, जिस पर वो कसकर देखता है कि ये सोना कितने कैरेट का है। उसी प्रकार हम भी अपनी मान्यताओं के कसौटी पर कस करके तो देखें क्योंकि कल अगर सचमुच हमारे सामने भगवान आ भी जायें तो क्या उनको हम पहचान पायेंगे!

जो सर्वधर्म मान्य हो- जिसको सभी धर्म वाले परमात्मा के रूप में स्वीकार करें उसको ही हम सत्य कहेंगे। ऐसा नहीं कि हिन्दुओं का भगवान अलग है, मुसलमानों व क्रिश्चियनों का भगवान अलग है, नहीं। भगवान एक ही है, और वो सर्व का पिता है। दस बातें हमारे सामने हों और हम कहें कि दसों ही सत्य हैं, ऐसा तो हो नहीं सकता ना! यदि दो बातें भी हमारे सामने हों तो भी हम कहते हैं- यह सच है, यह झूठ है। तो परमात्मा के विषय में भी सत्य एक ही होना चाहिए, चाहे नाम भिन्न-भिन्न हों।

जो सर्वोच्च हो, जिसके ऊपर कोई न हो

जो सर्व का माता-पिता, बंधु, सखा, गुरू, शिक्षक व रक्षक हो। जिसका कोई माता-पिता न हो, जिसका कोई गुरू न हो, जिसका कोई शिक्षक न हो, जिसकी रक्षा करने वाला कोई न हो, उसको कहेंगे परमात्मा।
जो सर्व से परे हो- तभी तो परमात्मा को अजन्मा कहा जाता है। अजन्मा के साथ-साथ उसने गीता में यह भी कहा है कि मैं कालों का भी काल अर्थात् महाकाल हँू। मुझे काल कभी खा नहीं सकता। जिसका जन्म होता है उसे कर्म भी करना पड़ता है और उसको कर्म का फल भी भोगना पड़ता है। जो कर्म और कर्मफल के चक्र में आ जाता है तो उसे हम परमात्मा नहीं कहेंगे, क्योंकि उसने स्वयं कहा है कि मैं अकर्ता तथा अभोक्ता हूँ, न करता हूँन भोगता हूँ।

जो सब कुछ जानता हो, सर्वज्ञ हो
इसी कारण से परमात्मा को क्रत्रिकालदर्शीञ्ज कहा जाता है। जिसके पास तीनों कालों व तीनों लोकों का ज्ञान हो, जो त्रिनेत्री है तथा जो मनुष्यों को भी ज्ञान का दिव्यचक्षु प्रदान करने वाले हैं, उसे हम ‘परमात्मा’ कहेंगे।

जो सर्व गुणों में अनंत हो

जिसकी महिमा के लिए कहा हुआ है कि यदि धरती को कागज़ बना दो, सागर को स्याही बना दो, जंगल को कलम बना दो और स्वयं सरस्वती बैठकर परमात्मा की महिमा लिखे तो भी उसकी महिमा लिखी नहीं जा सकती। तो यह है परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को परखने की कसौटी। जिस कसौटी पर हमें अपनी मान्यताओं को भी कस कर देखना है कि क्या वह सत्य है!

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