गीता में भी बताया…
यो मामजमनादि च, वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढ़: स मत्र्येषु, सर्वपापै: प्रमुच्यते।।
परमात्मा को जाने-अनजाने हम उसके धाम में ही याद करते हैं। लेकिन इसमें भी अगर तर्क करें तो बात समझ आयेगी। क्योंकि तार्किक बुद्धि से इसको समझा जा सकता है कि जब कभी आप मंदिर में जाते हैं, सामने मूर्ति होती है, फिर भी आप आँखें बंद करते हैं। और उस समय आँखें बंद करने का मतलब क्या हुआ! अगर परमात्मा मेरे सामने है तो मैं उसको मिलूंगा, आराम से देखूंगा, उससे बातचीत करूंगा। लेकिन हमारे अंदर के अंतरमन को ये पता है कि ये सिर्फ एक मूर्ति है, जड़ मूर्ति है। परमात्मा यहां नहीं है तो हम आँख बंद करके उस निराकार को ही तो याद कर रहे हैं ना! और उसके धाम में ही याद कर रहे हैं। वो कहां है हमें पता नहीं है, लेकिन एक सिर्फ और सिर्फ अनुमान लगा के कि परमात्मा से मिलने के लिए, इन नेत्रों से तो हम काम नहीं कर सकते या हम इन नेत्रों से तो उसको नहीं देख सकते। ये हम प्रमाणित करते हैं। तो इस प्रमाण को और बल देने के लिए हमको ये जानना ज़रूरी है कि परमात्मा का धाम इस दुनिया में नहीं हो सकता। वो इस दुनिया से परे और पार है। उसको हम परमधाम कहते हैं। और वही परमधाम उसका निवास स्थान है। जो पूरी तरह से हम सभी के लिए खुला हुआ है। इसीलिए जाने-अनजाने निरंतर आँखें बंद होती ही हैं। तो इससे सिद्ध है कि परमात्मा यहां नहीं है। वहीं गीता के अध्याय 10, श्लोक 3 में परमात्मा कौन है, उसका स्टीक वर्णन है। उसमें लिखा है कि साकार मनुष्यों का ये स्थूल लोक सूक्ष्म शरीरधारी देवता लोक, मूल लोक अर्थात् सर्व लोकों के लिए महेश्वर मुझ भगवान ईश्वर को जन्म रहित, अजन्मा, अयोनि, अकाय, अशरीरी और अनादि के रूप में जो मनुष्य आत्मा समझती है वो मनुष्य आत्माओं में मोह शून्य होकर सर्व पापों से मुक्त हो जाती है। तो ये जो शब्द उसके अर्थ सहित परमात्मा या भगवान का परिचय है, जो श्रीमद्भगवद् गीता से ही लिया गया है। ये हमको सिद्ध करता है कि परमात्मा निराकार है और वो अपना परिचय कैसे आकर देता है।
शिवरात्रि के वास्तविक परिचय से लाभ
मनुष्य अपने जीवन में वही कार्य करना चाहता है जिससे उसे लाभ हो। अपनी हानि करने अथवा दिवाला निकालने वाला व्यक्ति बुद्धिमान नहीं माना जाता। जो व्यक्ति क्रज्ञानीञ्ज और क्रयोगीञ्ज कहलाता और जय-पराजय तथा हानि-लाभ में समान रहने का पुरूषार्थ करता है, जान-बूझ कर हानि तो वह भी नहीं करना चाहता। मान-अपमान में समान रहने वाला व्यक्ति भी जानबूझकर तो स्वयं को अपमानित करने वाला कार्र्य नहीं करता। इस बात को देखते हुए मनुष्य को यह सोचना चाहिए कि जो आध्यात्मिक बातें मैं सुनाता हूँ, वे भी तो कुछ ऐसी बातें हों कि जिनसे जीवन में लाभ हो। आध्यात्मिकता का उद्देश्य यही तो है कि जीवन में पवित्रता आए और सदाचार बढ़े, मन में शान्ति बनी रहे, बुद्धि की रूचि अच्छाई की ओर हो, चित्त प्रसन्न रहे, और आत्मा में आनंद की वृद्धि हो तथा अंतरात्मा इस बात की ग्वाही दे कि जो आध्यात्मिक बातें हम सुन रहे हैं, वे ठीक हैं। तभी तो हमारे जीवन में शान्ति, सुकून आएगा और जि़ंदगी सहज और सरल बनेगी। यही तो हम चाहते हैं ना!