पुण्य आत्मा कैसे बन सकते हैं…!!!

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एक उदाहरण है कि जैसे कोई व्यक्ति दान करता है तो आप उसका चेहरा, चलन देखो एक अभिमान नज़र आयेगा, और जहाँ भी जायेगा उसका वर्णन ज़रूर करेगा, लेकिन पुण्य आत्मा सदा संतुष्ट होगी। उसके चेहरे पर प्रसन्नता और संतुष्टता होगी।

दुनिया में एक बात बहुत प्रचलित है कि अगर अगले जन्म में बहुत सुखी और शांत रहना है, सबकुछ बहुत अच्छा करना है तो दान-पुण्य ज़रूर करना चाहिए। लेकिन आज इस समाज में बहुत ऐसे लोग हैं जो दिन-रात जिसको कहते हैं धर्माऊ निकालते हैं अपने लिए कि हर दिन का कोई जो भी साहूकार हैं या कोई बड़े-बड़े बिजनेसमैन हैं, अपनी-अपनी दुकान में धर्माऊ निकालते हैं कि इसको हम देंगे तो दूसरे दिन से ज्य़ादा से ज्य़ादा हमारे गल्ले में आयेगा। ऐसी बहुत सारी मान्यतायें लोग हर रोज़ अपने दैनिक जीवन में कर रहे हैं, लेकिन एक है दान करना, दूसरा है पुण्य करना। दान सब लोग कर रहे हैं। पैसा ज्य़ादा है तो कम्बल बांट रहे हैं या फिर कुछ चादरें बांट रहे हैं, या फिर कुछ खाने की चीज़ें दे रहे हैं, लेकिन पुण्य सभी नहीं कर रहे हैं क्योंकि दान से भी पुण्य का बहुत महत्त्व है। दान एक इच्छित व्यक्ति को भी दिया जा रहा है और एक अनिच्छित व्यक्ति को भी दिया जा रहा है।
आजकल तो ये एक परम्परा-सी चली आ रही है कि आपको इतना परसेंट निकालके दान ज़रूर करना चाहिए ताकि अगले जन्म में आपको सही मिले, लेकिन पुण्य की परिभाषा बहुत ही अलग है। पुण्य कर्म नि:स्वार्थ सेवा भाव का कर्म है। पुण्य कर्म दिखावा नहीं होता है लेकिन दिल से होता है। दान में क्या होता है दान में ज्य़ादातर जितने भी व्यक्ति हैं, जो भी दान करते हैं चाहे चेअर(कुर्सी) है, टेबल(मेज)है जो भी दान की वस्तु है उस पर अपना नाम लिखवा देते हैं। माना दिखावा भी है। दिल से करने वाले बहुत कम हैं, लेकिन पुण्य कर्म या पुण्य करना उसे कहा जाता है कि जब किसी को आवश्यकता है और उस समय उस व्यक्ति का सहयोगी बनना, उस व्यक्ति के लिए कर्म करना और पुण्य कर्म जब करते हैं और भूल जाते हैं। जैसे एक स्थिति जिसको हम फरिश्तेपन की स्टेज कहते हैं कि जैसे एक फरिश्ता आया, कर्म किया और भूल गया। और व्यक्ति उसको ढूंढ रहा है कि पता नहीं ऐसा कौन-सा व्यक्ति है कि जो आया और काम करके चला गया। समय पर मुझे सहयोग मिल गया। उसे कितनी दुआएं मिल जाती हैं।
जैसे कई बार होता है कि हमने कर्म किया फिर मुख से बात करके धन्यवाद कर दिया और आप खुश हो जाते हैं, लेकिन पुण्य कर्म करने के बाद अनेक आत्माओं के दिल की जो दुआएं प्राप्त होती हैं वो बड़ी गुप्त होती हैं। एक तो इसका प्रत्यक्ष फल भी मिलता है और अप्रत्यक्ष फल भी मिलता है। पुण्य आत्मा जो होगी उसकी दृष्टि, वृत्ति औरों की दुआओं के रूप में अनुभव करायेंगी। एक उदाहरण है कि जैसे कोई व्यक्ति दान करता है तो आप उसका चेहरा, चलन देखो एक अभिमान नज़र आयेगा, और जहाँ भी जायेगा उसका वर्णन ज़रूर करेगा, लेकिन पुण्य आत्मा सदा संतुष्ट होगी। उसके चेहरे पर प्रसन्नता और संतुष्टता होगी। जो अभिमान और अपमान से बेफिक्र होगा वो पुण्य आत्मा है। पुण्य का खाता, उसकी निशानी क्या होगी अगर आपका पुण्य का खाता जमा है या पुण्य आपने किया है इसकी सबसे बड़ी निशानी है व्यर्थ खत्म हो जायेगा। इसका मतलब क्यों व्यर्थ हमारे अन्दर चल रहा है, क्योंकि हमने पुण्य नहीं किया, अनावश्यक चीज़ों पर खर्च किया, लेकिन जिसको जिस शक्ति की ज़रूरत है, जिसको जिस सहारे की ज़रूरत है उसे उस समय पर सहयोग नहीं दिया तो हमारा व्यर्थ बहुत चलता है, और व्यर्थ हम ब्राह्मणों के लिए बहुत खतरनाक स्थिति मानी जाती है। जो हम परमात्मा के ज्ञानी बच्चे हैं अगर हमें सम्पूर्ण बनना है तो हमेशा सुखदाई बनना बहुत ज़रूरी है। जैसे दुनिया में एक कहावत है ना कि जो हम देते हैं हमें वो ही मिलता है। अगर हम सुख देंगे तो सुख मिलेगा, तपस्वी अर्थात् तो तपस्वी व्यक्ति कौन है, पुण्य आत्मा बनने वाला कौन है जो थोड़ा भी दु:ख स्वीकार न करे। ये ज्ञान क्या कहता है जिस ज्ञान को हमने लिया है ये ज्ञान कहता है कि अगर हमको थोड़ा भी दु:ख महसूस होता है किसी भी बात से, थोड़ा भी दु:ख बहुत ज्य़ादा तकलीफ देता है तो इसका मतलब इतने सारे जन्मों में हमने दु:ख देखा ही नहीं, बहुत कम देखा है। मतलब परिवर्तन करना उसे कहा जाता है जो हर समय सुख फील करे, जो ग्लानि को एक्सेप्ट (स्वीकार) कर ले, माना ग्लानि को प्रशंसा समझ ले वो पुण्य आत्मा है। गाली देने वाले को जो दुनिया में कहा जाता है कि गले लगाना, ये बहुत मुश्किल टास्क है, बहुत मुश्किल कार्य है। लेकिन इसे वही कर पायेगा जिसका पुण्य का खाता जमा होगा।
एक होता है कि सामने वाला कुछ भी कर रहा है लेकिन उसको देखने के बाद हमारी स्थिति कैसी होती है!
दुनिया में बहुत सारी कहानियां प्रचलित हैं कि पुण्य का प्रत्यक्ष फल हर आत्मा की दुआएं हैं। तो जिन आत्माओं ने बहुत सारी दुआएं जमा की हैं ना उनको पुुरुषार्थ करने के लिए कोई एफर्ट(मेहनत) नहीं करना पड़ता। उनका पुरुषार्थ नैचुरल होता है, नवीन होता है। हम सबके पुरुषार्थ में इतनी दिक्कत क्यों हो रही है, क्योंकि हमारा पुण्य का खाता बहुत कम है। पुण्य आत्मा की निशानी क्या है, जो हम नहीं चाहते, जो हम करना नहीं चाहते और हम चाहते हैं कि ऐसा हो भी ना वो व्यक्ति अगर ऐसा न कर पाये तो समझ लो कि वो व्यक्ति पुण्य आत्मा की श्रेणी में है। मतलब हमारे संकल्प में इतना बल आ गया, इतने लोगों की दुआएं मिल गई कि अगर कोई कर्म करना नहीं चाहता इतने लोगों की दुआओं के संकल्प से मैं वो नहीं करूँ। तो इसका मतलब मैंने जीत पा ली, मेरे पास पुण्य का खाता जमा है। सारा दिन बैठकर आप इस बात को चेक करके देखो कि अगर मेरे अन्दर बहुत ज्य़ादा संकल्प नहीं चल रहे हैं बहुत कम चल रहे हैं, श्रेष्ठ चल रहे हैं और इतना श्रेष्ठ चल रहे हैं कि जिसका कोई पारावार नहीं, तो श्रेष्ठ संकल्प ही हमारी स्थिरता की निशानी है। क्योंकि श्रेष्ठ संकल्प में गति नहीं होती। परमधाम श्रेष्ठ संकल्प है, विश्व की बादशाही श्रेष्ठ संकल्प है, स्वर्गिक सुख श्रेष्ठ संकल्प है। लेकिन जिनको याद नहीं रहता ना तो उनकी दुआएं बहुत कम हैं, पुण्य का खाता बहुत कम है। जब पुण्य का खाता बढ़ेगा तो दु:ख हमें सुख फील करायेगा। अगर कोई हमको तकलीफ भी देता है क्योंकि देखो इस दुनिया में निशानी है कि जिसका मन खाली है,उसी को गाली फील होती है। जिसका मन भरा हुआ है उसको गाली फील नहीं होती।
तो मन में अगर परमात्म श्रीमत है, परमात्मा की बातें हैं, परमात्मा का आह्वान है, परमात्मा का भाव भरा हुआ है तो चाहे कोई कुछ भी कहे वो हम सबके लिए है। तो जितना पुण्य का खाता उतनी संतुष्टता, उतनी खुशी, उतना बल और उतना पराक्रम हमारे चेहरे से, हमारी चलन से दिखाई देगा। तो हे आत्मन्! पुण्य का खाता जमा करो। और पुरुषार्थ में ईज़ीनेस(सरलता) लाओ। सहज पुरुषार्थी सिर्फ पुण्य के खाते से बना जा सकता है।

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