श्री राम परमहंस ने कहा है कि, ‘शरीर को निरोग रखने के लिए जितना सजग रहते हैं उससे आधा भी मन को निरोग रखने के लिए सजग रहें तो आनन्द अनुभव होगा’।
आज हम देखते हैं कि शरीर को ठीक रखने के लिए स्वास्थ्य वर्धक खुराक, व्यायाम, योग-आसनों और जिम में जाकर पसीना बहाते हैं किन्तु उसकी तुलना में उसके विपरित मन के बारे में भाग्य ही विचार करते हैं! जबकि आज हम जि़न्दगी की अन्धी दौड़ में दौड़ रहे हैं, ऐसे समय में ज़रा थम कर, रूक कर देखें। महत्वपूर्ण कार्यों के अंबार के मध्य तेज रफ्तार से चलते जीवन में थोड़ी देर रूकें, ठहरें। फिर चलें, निरन्तर राग-द्वेष में झूलते अपने मन को थोड़ी देर के लिए मुक्त करें। क्योंकि मुझे तुमसे(मन से) बात करनी है। इसलिए थोड़ी देर रूक जाएं। हम स्वयं अपने मन के साथ संवाद करें और जब हम अपने मन के साथ संवाद करेंगे, तब पहले हमें मन के गोडाउन में पड़े स्टॉक का हिसाब मिलाना पड़ेगा, तब भारी मूँझ, मुश्किलें होगी और कठिनाईयां भी होंगी।
मन के भीतर में जायेंगे तो कभी-कभार उसमें शैतान भी आराम से बैठा हुआ मिलेगा। उसे ज़रा जान लें, परख लें। ये शैतान कोई किसका इंतजार करने के लिए बैठा है। ‘कोई’ यानी कोई परिस्थिति, प्रसंग, माहौल या व्यक्ति। जैसे ही, जिसके साथ मेल होगा तो तुरंत भीतर का राक्षस भभक उठेगा।
जिसको आपने वासनामय दृश्यों से पोषित किया है, हुष्ट-पुष्ट किया है। पारावार तृष्णाओं से वो उछल-कूद करने लगेगा और अनियंत्रित कामनाओं के तीव्र मनोवेग से संतुष्टि प्राप्त करना चाहेगा। ये किसकी हत्या करने या बलात्कार करने के लिए राह देखते हुए नज़रें गड़ाए रखेगा।
ऐसे में हम उसे उसी समय तुरंत ठीक नहीं कर सकेंगे, रोक नहीं सकेंगे। उसके लिए हमें खुद शैतान के साथ लड़ाई करनी पड़ेगी, मुकाबला बराबरी का होगा। क्योंकि आज तक जो मन में बैठा शैतान किसी की राह देखते हुए नज़रे गड़ाए हुए बैठा हुआ होता है। उसे हमें अपने मन से बाहर निकालना होगा। मन में रहे हुए शैतान की पूरी-पूरी चिकित्सा हमें ही करनी पड़ेगी।
उसके लिए परमात्मा के सानिध्य का साथ लेकर, सद्गुरु की शरण लेकर या शुभ में श्रद्धा बिठाकर, हमारे मन में आसन जमा कर बैठे हुए राक्षस को निकाल बाहर फेंकना होगा। उसे सिर्फ मन-मनाने मात्र से काम नहीं चलेगा। क्योंकि मन में होगा तो वो फिर कभी न कभी कोई तक मिलते ही जाग उठेगा। इसलिए उसे मन से पूर्णत: निकाल देना होगा। उसके लिए मन की मक्कमता, दृढ़ता ज़रुरी है। जैसे वालिया लुटेरा ऋषि-वाल्मिीकि बनता है। इसी तरह मन की मक्कमता ज़रूरी है। ऐसी मन की मक्कमता ही आपको दृढ़ता देगी। कुछ भी हो जाए मुझे शैतान को अब आने नहीं देना है। उसे हटाने के लिए एक प्रकार का जुनून चाहिए। ऐसा जुनून होगा तो ही हम उसे दूर कर सकेंगे।
इस शैतान को वश करने के बाद दूसरा प्रश्न उठेगा, तुम्हारी आकाश-आंबती इच्छाएं हैं, कामनाएं, तृष्णाएं और अभिप्साएं। ज़रा थम कर, रूक कर अपनी इच्छाओं और अभिप्साओं का कार्डियोग्राम लें। और ये कार्डियोग्राम इच्छाएं और अभिप्साएं कैसे हमारे अन्दर धबकती हैं, कैसे उछल-कूद करने के लिए आतुर हैं, आप उसे जान पायेंगे, समझ सकेंगे।
इसकी जांच करेंगे तो हमारे सामने पहली बात ये है कि जीवन की अवस्थाएं जैसे-जैसे पलटती जाती हैं, वैसे-वैसे हमारी इच्छाएं, तृष्णाएं और आकांक्षाएं पलटती जाती हैं। मतलब कि कुछेक इच्छाएं और आकांक्षाएं हमारे जीवन में स्थिर रूप से कार्य नहीं करती। वे परिवर्तनशील होने के कारण एक समय उनका आकर्षण होता है और समय बीतते-बीतते इस तरह की इच्छाएं अपने आप पिघल जाती हैं।
जैसे, युवावस्था में कितनी इच्छाएं होती हैं परंतु धीरे-धीरे उसमें परिवर्तन आता है। बाल्यावस्था में जो इच्छाएं होती वो समय बीतते समाप्त हो जाती हैं। हो सकता है युवावस्था में कोई युवती के पीछे लगे रहते थे और समय बीतते विशाल बंगलों, अपने वंश-पुत्र, भव्य वैभव ये सब इच्छाएं आस-पास मंडरा रही होती हैं। उस समय वो इच्छाएं इतनी तीव्र होती हैं कि हमारे पूरे जीवन में छा जाती हैं। खैर, विस्तार बहुत है। कहने का भाव ये है कि दौड़ती-भागती जि़न्दगी के बीच समय निकालकर मन का कार्डियोग्राम लें और भीतर बैठे शैतान को न सिर्फ बाहर फेंके बल्कि उसे जलाकर भस्म कर दें।
ज़रा रूककर… अपने मन की इच्छाओं का कार्डियोग्राम लें
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