उन्हीं के द्वारा लिखे गए समय के ऊपर और उसमें भी विशेष संगम के समय के महत्व के बारे में उन्हीं के शब्दों में कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं…
संगमयुग का यह अनमोल समय है। सारे कल्प में यह वही समय है जब हम भगवान से पूरा वर्सा लेने का पुरूषार्थ करके ऊंचे से ऊंचा भविष्य बना सकते हैं। इसका एक-एक क्षण कितना मूल्यवान है! अगर हम उसका सही रीति से उपयोग करें, प्रयोग करें तो मालामाल हो जाएं। अगर हम उसका उपयोग ठीक रीति से नहीं करें, गँवा दें तो कितना बड़ा नुकसान है! व्यक्ति आमतौर से कोई कार्य करता है तो देखता है कि इसके लाभ और हानि क्या हैं, जिसको हम निर्णय कहते हैं। निर्णय में माइनस और प्लस प्वाइंट सोचा जाता है। संगम का एक सेकण्ड, मिनट व्यर्थ गंवाने से कितना भारी नुकसान है! और फिर यह रिपीट(पुनरावृत्त) भी होता है। रिकरिंग लॉस है। फिर-फिर होने वाला नुकसान। यह नुकसान ऐसा है जो फिर-फिर होगा। एक दफा गँवा बैठे और आगे चलकर ठीक कर देंगे, ऐसा नहीं। गँवाया सो गँवाया हर कल्प, कल्प कल्पान्तर गँवाना पड़ेगा। भगवान का संग मिला, वह टीचर के रूप में मिला, सद्गुरू के रूप में मिला। वह पारलौकिक बाप हमें पारलौकिक वर्सा देने के लिए आया है। इतना प्यार से वह हमें मार्गदर्शन करता है, फिर हम उस समय को गँवा दें तो क्या कहेंगे? किन-किन बातों में हम अपना समय व्यर्थ गँवाते हैं- यह चर्चा करेंगे।
प्रभाव और उदासीनता से कोसों दूर रहना इसमें हैं, इम्पे्रशन(प्रभाव), डिप्रैशन। उदासीनता एक विश्वव्यापी बीमारी है। बहुत लोग ऐसे हैं जो दिन में कई दफा डिप्रैस्सड होते हैं। अभी देखें तो ठीक हैं, खुश हैं परन्तु थोड़े समय के बाद देखें तो डिप्रैस्सड हैं। बार-बार ऐसा होता है। उसके कई कारण हैं। जब व्यक्ति यह सोच लेता है कि मैं किसी काम का नहीं। मैं बिल्कुल बेकार हूँ, निकम्मा हूँ। देखता है कि दूसरा व्यक्ति आगे निकल रहा है, उसकी वाह, वाह हो रही है, उसे कुछ लाभ हो रहा है, मैं क्या कर रहा हूँ! मैं किसी काम का आदमी नहीं हूँ। खुद ही खुद के लिए कहता है कि मेरे जैसा निरुपयोगी और कोई नहीं। आमतौर पर उर्दू में चिट्टी में लिखते थे- नाचीज़। उस समय एक रिवाज़ जैसा था कि लोग अपने को कहते थे और लिखते थे कि नाचीज़। नाचीज़ माना मैं कुछ नहीं। मैं तो कुछ भी नहीं हूँ, दासों का दास हूँ। पाँव की धूल हूँ। कई लोग समझते हैं कि ऐसा कहना या ऐसा लिखना नम्रता है। लेकिन कुछ लोग अपने आपको अनुभव भी ऐसा करते हैं। ऐसी निकृष्ट भावना में चले जाते हैं। भक्तिमार्ग में माया से जो हार हमारी होती है उसका एक कारण यही है कि हम समझ बैठते हैं कि हम तो निकम्मे हैं, किसी काम के नहीं। हे प्रभु, आप ही हमारे ऊपर कृपा करो, हमें छुड़ाओ। हम तो नीच हैं, पापी हैं। ऐसे अपने को खुद गाली देते थे। यह हीन भावना की महसूसता है, आत्म विश्वास की कमी है। अब संगमयुग में यह उल्टा हो गया। भगवान आकर कहते हैं, ‘मीठे बच्चे, तुम तो इष्ट हो। देखो, तुम्हें आवाज़ सुनाई नहीं देती, तुम्हारे भक्त तुम्हें याद कर रहे हैं, पुकार रहे हैं? शान्तिदेवा, शान्तिदेवा कह रहे हैं। ये आप ही तो थे जिन्होंने उनको शान्ति दी थी।’ भूत और भविष्य जो पुनरावृत्त होता है, बाबा वह बताते हैं। भूतकाल पुनरावृत्त होता है। इसीलिए कहते हैं भूत, भविष्य बनता है चक्र का सब राज़ समझाकर बाबा कहते हैं कि पहले तुम क्या थे! आप ही सृष्टि के आधारमूर्त हो, उद्धारमूर्त हो। बाबा फिर से हमारे में आत्म विश्वास जाग्रत करते हैं और उसका विकास कराते हैं। परन्तु हम कोई बात होने पर, कोई परिस्थिति आने पर अपना विश्वास खो बैठते हैं।
जिसे आप पढ़ रहे हैं, अपने आप को जिनकी शिक्षाओं से गढ़ रहे हैं तो उनके बारे में जानना भी ज़रूरी है। भ्राता जगदीशचन्द्र हसीजा ब्रह्माकुमारीज़ के मुख्य प्रवक्ता रहे। उन्हें सारे वेदों, शास्त्रों और आध्यात्मिकता की गहराई का ही सिर्फ ज्ञान नहीं था बल्कि वे उन भाग्यशाली आत्माओं में से एक थे जोकि स्वयं भगवान ने उन्हें चुना और साथ-साथ सृष्टि परिवर्तन के कार्य में अपना प्रमुख सहयोगी भी बनाया। वे जीवन में समय के सदुपयोग के ऐसे प्रबंधक थे जिन्हें जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ गँवाना गंवारा नहीं था। जिन्होंने मिले हुए जीवन के प्रत्येक पल प्रभु के कार्य में अर्पण कर दिए। खुशी-खुशी से, कठिन से कठिन परमात्मा द्वारा रचे ईश्वरीय यज्ञ का हरेक कार्य इतना सहज और सहर्ष रूप से किया जो आज भी हम सबके सामने पदचिन्ह हैं। ऐसे परमात्मा के प्रभु प्रिय आदि रत्न की पुण्य तिथि पर हृदय की गहराईयों से भावपूर्ण श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।




