मातेश्वरी जगत अम्बा माँ का अलौकिक स्नेह हर बच्चे के लिए एक चुम्बक की तरह रहा। हर एक बच्चे के लिए उससे बिछडऩा कितना कठिन होता है, ये आप समझ ही सकते हैं। लेकिन ड्रामा की भावी को कोई टाल नहीं सकता। उसमें तो स्वयं भगवान भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। माँ की विदाई के पहले ही सत्य मालूम होने के बावजूद भी दिल पर पत्थर रख प्रभु प्रेम के बीच उस समय की घडियां बिताना असहनीय थी, परन्तु सत्यता और स्नेह के बीच संतुलित रहना ही ज्ञान की पराकाष्ठा है।
मुंबई से ब्रह्माकुमार भ्राता रमेश जी कहते हैं कि अपै्रल, 1964 से मम्मा के साथ मेरे व्यक्तिगत अनुभव बहुत ही गहरे और हृदयस्पर्शी थे। मम्मा, अपै्रल, 1964 में मधुबन से सेवाकेन्द्रों पर चक्कर लगाने गयी थीं। मम्मा पंजाब का चक्कर लगाते हुए कानपुर पहूँची। मैं मुम्बई में था। एक दिन अचानक कानपुर से मुझे फोन में बताया कि कल मम्मा को एक डॉक्टर को दिखाया गया तो मम्मा की छाती पर एक गाँठ दिखाई पड़ी। एक अन्य डॉक्टर को दिखाया तो उस डॉक्टर ने कहा कि यह गाँठ कुछ विचित्र लगती है इसलिए मातेश्वरी जी को मुंबई ले जाना चाहिए और वहाँ टाटा हॉस्पिटल में जाँच करानी चाहिए। फिर कानपुर के भाई-बहनों ने कहा, हमने बाबा को बताया तो बाबा ने कहा कि मम्मा पहले आबू आये। मम्मा के आबू जाने के बाद क्या करना है, क्या नहीं करना इसका फैसला बाबा करेंगे। बीमारी की गंभीरता को जानते हुए मैंने फोन द्वारा मधुबन में बाबा से विचार-विमर्श किया। मम्मा को कानपुर से सीधा मुंबई ले आने का निर्णय लिया गया। दादा विश्वकिशोर भी मधुबन से मुंबई आये। दादा विश्वकिशोर के साथ मिलकर मैंने अपनी पहचान वाले डॉ. जैसवाल जी से टाटा हॉस्पिटल में चैकअप कराने का कार्यक्रम बनाया। चैकअप करने पर डॉक्टर्स ने ऑपरेशन करने का फैसला लिया।

मम्मा को ड्रामा की भावी पर अटूट निश्चय ऑपरेशन का समय निश्चित हो गया। दो दिन के बाद फिर हम मम्मा को हॉस्पिटल लेकर गये। ऑपरेशन थियेटर में मम्मा के साथ मेरी लौकिक बहन डॉ. अनिला भी थी, वह आकर जैसे-जैसे समाचार सुनाती थी वैसे-वैसे हम मधुबन में बाबा को सब समाचार साथ-साथ बताते रहते थे। उसके बाद अस्पताल से मम्मा को मुंबई में अपने घर ले आये। ऑपरेशन के बाद मम्मा मुंबई में डेढ़ महीने रहीं।
बाद में हम मम्मा को लेकर मधुबन आये। डॉक्टर ने कहा कि हर तीन महीने में चैकअप कराने के लिए मम्मा को मुंबई लाना पड़ेगा। मम्मा आती रही। 12जनवरी, 1965 को मम्मा को टाटा हॉस्पिटल में फिर दिखाया। जाँच के बाद डॉक्टर ने तीन महीने बाद फिर चैकअप कराने को कहा। मम्मा मुंबई से बैंगलोर गई। वहाँ डेढ़-महीने रहीं, बाद में पुणे आईं। फिर 18 अपै्रल को मम्मा चैकअप के लिए मुंबई आयीं। मम्मा के साथ जमुना दादी और अनिला बहन गईं, मैं नहीं गया क्योंकि उस दिन मैं ऑफिस गया था। जब ऑफिस से वापिस आया तो अनिला बहन का चेहरा उदास और पीला हो गया था। मैंने उनको बाहर गैलरी में ले जाकर पूछा, ‘आपका चेहरा पीला क्यों हो गया है? डॉक्टर ने क्या बोला, मुझे बताओ।’ वो बात को घुमाने लगी। मैंने कहा, ‘सच बताओ, डॉक्टर ने क्या बताया।’ उन्होंने कहा, ‘तुम सुन नहीं सकोगे।’ मैंने कहा, ‘मेरी चिन्ता न करो, वास्तविकता का सामना करना ही पड़ेगा, छिपाने से वो टलती नहीं है।’ फिर उन्होंने कहा कि मम्मा का कैंसर दावानल(जंगल की आग) की तरह फेफड़े में फैल रहा है। इसका अर्थ डॉक्टर ने बताया है कि मरीज ज्य़ादा से ज्य़ादा 3-4 महीने तक जी सकेगा।
शील दादी में अव्यक्त बाबा आये और मम्मा की तबियत के बारे में हुई रूबरू बात दूसरे दिन मैं शील दादी के पास गया और कहा कि वतन में जाकर अव्यक्त बाबा को आवश्यक कार्य के लिए अपने तन में आने का अनुरोध करो। शील दादी ने कहा, ‘आपको जो भी सन्देश देना है मुझे दे दो, मैं सुबह उनके पास ले जाऊँगी। बाबा इतना साधारण है क्या कि जब चाहे आप बुलाओ और वो आ जाये!’ मैंने कहा, ‘बात ऐसी ही है जो मैं आपको सन्देश में भी नहीं सुना सकता इसलिए आप बाबा के पास जाइये, मुझे पूर्ण विश्वास है कि बाबा ज़रूर आयेगा। बहुत गुप्त और महत्वपूर्ण बात है इसीलिए आप जाइये।’ वे ध्यान में गयीं और पाँच मिनट के बाद बाबा उनके तन में आये। बाबा से बातचीत हुई, सारा समाचार बताया। फिर बाबा ने कहा, ‘बच्चा, यह ड्रामा की भावी है, टल नहीं सकती। अच्छा, तुमको एक काम करना है, यह बात तुम एक कागज पर मम्मा के लिए लिखो कि डॉक्टर ने आपके जीवन की अवधि केवल 3 महीने ही बताई है।’
मेरे लिए जीवन में सबसे कठिन परीक्षा का पल आप सोचिए, दुनिया में कौन-सा ऐसा बच्चा होता है जो अपनी माँ को लिखेगा कि माँ तुम्हारा जीवन सिर्फ 3-4 महीने शेष है, उसके बाद आप शरीर छोड़ेंगी? अभी तो मैं बहुत शान्ति से आपको बता रहा हूँ लेकिन उस समय बाबा के सामने ना-ना कहता रहा और आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। मैं कह रहा था, ‘बाबा, मेरे से यह काम नहीं होगा, नहीं होगा।’ बाबा कहने लगे, ‘यह कार्य तुमको ही करना होगा। बाबा तुम्हें शक्ति देंगे।’ आज रात को ऑफिस में जाओ, मम्मा को पत्र लिखो और मम्मा के हाथ में ही दो। फिर मम्मा के पढऩे के बाद उस पत्र को लिफाफे में डालकर मधुबन भेजना। ऊपर लिखना, ‘साकार बाबा को ही मिले।’ तुम्हारी लिखत साकार बाबा ही पढेंगे और कोई नहीं पढ़ सकेंगे।
मैं ऑफिस गया और लिखना शुरू किया। पाँच-छह बार कोशिश की परन्तु लिखने की हिम्मत ही नहीं आई। आखिर किसी प्रकार मम्मा को पत्र लिखा और उसे एक लिफाफे में बन्द किया। फिर रात के भोजन के बाद, मम्मा के कमरे में गया, वह चिट्ठी मम्मा को दी और कहा, मम्मा यह आपको पढऩी है। मम्मा ने कहा, यह किसकी चिट्ठी है? मैंने कहा, ‘अव्यक्त बाप ने मुझसे लिखवाई है।’ मम्मा ने पढ़ा और कहा ड्रामा की भावी। देखिए, मम्मा का ड्रामा पर कितना निश्चय था कि सब कुछ जानते हुए भी कितनी निश्चिन्त और अडोल थीं। चिट्ठी पढ़कर मुझे वापिस की। मैंने उसको आबू में साकार बाबा के लिए भेज दिया। उस महीने की 19 और 20 तारीख को ये दिन मेरे लिए बहुत कठिन परीक्षा के दिन थे जिनका मुझे सामना करना पड़ा। दिल पर पत्थर रख कर मैंने इस पेपर को पास किया।
डॉक्टर के बस की बात नहीं रही, कहा- आप इसे घर ले जायें उसके बाद रेडिएशन कराने के लिए रोज़ मम्मा को हॉस्पिटल ले जाना पड़ता था ताकि कैंसर और जगह नहीं फैले। अन्तिम बार डॉक्टर के पास मम्मा को अनिला बहन लेकर गई। जाँच करवाई, तब डॉक्टर ने कहा, ‘अब कैंसर बहुत बढ़ गया है, दुनिया की कोई भी दवाई अब काम नहीं करेगी, आप कृपया इनको जहाँ चाहे वहाँ ले जाइये ताकि ये शान्ति से अपना शरीर छोड़ सकें।’ मम्मा को श्वास लेने में भी बहुत तकलीफ हो रही थी। जब डॉक्टर ने कहा कि उसको जहाँ चाहे वहाँ ले जाइये, तब अनिला बहन को गैरन्टी हो गई कि हम बाजी हार गए। फिर हमने साकार बाबा को फोन पर बताया कि डॉक्टर ने ऐसा-ऐसा कहा है, क्या करें? बाबा ने कहा, ‘मम्मा को आबू भेज दो।’
‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…’ 4जून,1965 को जब मम्मा हमारे घर से मधुबन के लिए विदाई लेने वाली थी तो उस दिन मैं गीत का एक नया रिकार्ड घर लेकर आया था। वो था, ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…।’ दादी कुमारका और दादी बृजेन्द्रा बाहर बैठी हुई थीं। दादी जी को मैंने कहा कि यह तीन मिनट का रिकार्ड है, पूरा होने के बाद आप इसको फिर से चलाना, मैं 6 मिनट मम्मा के साथ व्यतीत करूँगा। मैं मम्मा के कमरे में गया और गीत बजना शुरू हो गया। जब दादी जी ने यह गीत सुना तो उसको बन्द कर दिया। दादी जी कहने लगीं कि ऐसा गीत नहीं बजाना चाहिए, क्या समझते हो रमेश जी? मैंने कहा, ‘दादी, हम अपने घर से मम्मा को विदाई दे रहे हैं, यह हमारा निमंत्रण है।’ इस प्रकार दादी जी को हमने मना लिया। उनको पसन्द नहीं था, फिर भी उन्होंने रिकार्ड चलाया।
मुझे मालूम था कि मम्मा की क्या स्थिति है और भविष्य में क्या होने वाला है। मम्मा ने मेरे हाथ में अपना हाथ रखा और 6 मिनट तक मुझे प्यार भरी दृष्टि देती रहीं, मैं भी दृष्टि लेता रहा। बाद में मम्मा को व्हील चेयर पर नीचे लेकर आये और कार में बिठाया। टे्रन में भी मम्मा को विदाई दी गई। विदाई के समय पर मम्मा की आँखों में पे्रम के आँसू भरे थे। आगे क्या होगा यह मम्मा को भी मालूम था और मुझे भी। अन्य यज्ञवत्स यह सोच भी नहीं सकते थे कि मम्मा हमारा साथ छोड़ जायेंगी। फिर मम्मा को जमुना दादी, अनिला बहन और ब्रह्मा बाबा के लौकिक बेटे नारायण भाई के साथ आबू भेज दिया।
बाबा से इससे पहले कुछ नहीं मांगा… पर प्यार में इच्छा को रोक नहीं पाया अगले दिन गुरुवार था। उस दिन शील दादी भोग लेकर जा रही थीं। उनको हमने कहा कि बाबा के पास हमारा एक सन्देश ले जाना कि बाबा हमने आज तक आपसे कुछ भी नहीं माँगा। आज एक चीज़ माँग रहा हूँ कि जब मम्मा शरीर छोड़े उस समय मैं वहाँ हाजि़र रहूँ। शील दादी एकदम बोल पड़ी, क्या आप इतने नास्तिक बन गए? मम्मा कभी शरीर छोड़े, ऐसा कभी हो सकता है? ऐसी बातें करते हो? मैंने कहा, आप सिर्फ बाबा को मेरा सन्देश दे देना। अगर मम्मा शरीर छोडऩे वाली नहीं होगी, तो बाबा बता देंगे कि मम्मा शरीर नहीं छोडऩे वाली है और यह भी बता देंगे कि कैसे बाबा उनको आबू में नयी-नयी दवाई देंगे और मम्मा कैसे ठीक हो जाएंगी। यह बात शील दादी को भी अच्छी लगी। वे सन्देश लेकर गईं। बाबा ने कहा, ड्रामा को मंजूर है तो रमेश वहाँ पहुँच जायेगा। नीचे आने के बाद शील दादी ने कहा, बाबा ने तो यह नहीं कहा कि आपका सन्देश गलत है। ड्रामा को मंजूर है तो रमेश वहाँ पहुँच जायेगा, तो इसका अर्थ क्या है? मैंने कहा, मुझे क्या मालूम, यह तो चतुर सुजान बाबा ही जाने।
हुआ भी वैसा ही। जैसा बाबा का संदेश था। और हम दादी, निर्वैर भाई सहित मम्मा को अंतिम विदाई देने के लिए फूल, चंदन के हार लेकर पहुंच गए और बाबा ने हमारी इच्छा पूरी की। और हम सभी प्यारी मम्मा को भावभीनी पुष्पांजलि अर्पित की।




