क्या कभी आपने परेशान या निगेटिव इंसान से मिलने के बाद खुद को थका हुआ या उदास महसूस किया है? अगर हाँ, तो यह सिर्फ आपका वहम नहीं है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है, जिसे ‘इमोशनल कंटेजन’ कहा जाता है। यानी जब दूसरे के भाव आपके भीतर भी फैलने लगते हों। 1994 की एक रिसर्च ‘एलेन हैट फील्ड, जॉन कैसिओपो और रिचर्ड रैपसन’ बताती है कि इंसान दूसरों की भावनाएं, चेहरे के हाव-भाव, आवाज़ की टोन और शरीर की भाषा को जल्दी पकड़ सकता है। बिल्कुल वैसे जैसे किसी के जम्हाई लेने पर दूसरे को जम्हाई आ जाती है। हमारा दिमाग सामने वाले की भावनाओं को ‘मिरर’ करता है, जिससे उसका सीधा असर हमारे मूड पर पड़ता है।
यदि आप निगेटिव सोच रखने वाले लोगों के बीच रहते हैं तो इससे आपका तनाव, नींद, फैसले लेने की क्षमता और यहाँ तक कि शारीरिक सेहत पर असर पड़ता है। तो इससे बचने के यहाँ तीन आसान उपाय हैं… भावनाएं- सामने वाले की परेशानी सुनना ठीक है, लेकिन उसे अपने भीतर उतारें नहीं। बातचीत से पहले मन में तय करें कि ‘मैं मदद करुंगा लेकिन उसकी परेशानी खुद पर नहीं लूंगा।’ अक्सर होता ये है कि हम दूसरों की मदद करने जाते तो हैं परंतु उनकी परेशानी या दु:ख का असर हमारे ऊपर आ जाता है या यूं कहें कि उनके वायरस का इंफेक्शन हमें लग जाता है। जब भी आपके साथ ऐसी सिचुएशन आए तब मन में यही संकल्प करना है कि ‘उनकी परेशानी का इफेक्ट मुझ पर आने नहीं दूंगा।’
खानपान- आप जिन पांच लोगों के सबसे करीब हैं, वैसे ही बन जाते हैं। पॉजि़टिव व संतुलित लोगों का साथ आपकी सोच को बेहतर बनाता है। ऐसे रिश्तों को प्राथमिकता देनी चाहिए। जैसे चुनते हैं, वैसी ही संगति चुनें। मिसाल के तौर पर, आपकी इच्छा है डॉक्टर बनने की। यह आपका चयन है तो हमारी उसी तरह की संगति व उसी तरह का आहार होना चाहिए।
एक आदत- बातचीत से पहले व बाद में अपने मूल को 1 से 10 पर आंके। खुद से पूछें क्रयह भावना मेरी है?’ इस सवाल से मानसिक थकावट और भावनात्मक स्पष्टता का फर्क पता चलेगा। ऐसे छोटे कदम आज से लीजिए। इस तरह सेल्फ निरीक्षण आपको न सिर्फ शिक्षित करेगा बल्कि आपको सशक्त भी करेगा। इतने तक ही नहीं, आपके व्यक्तित्व में वो उच्चता अनुभव होगी जो आपकी सन्तुष्टता की उच्चतम स्थिति में ले जाने में इजाफा करेगी। दिनभर में हमें एक सावधानी अवश्य रखनी चाहिए उसके लिए दिनचर्या में से कुछ समय अपने प्रति अवश्य अवकाश में गुजारें। या यूं कहें कि एकांत में बैठकर अपने आप से पूछें कि मैं स्वस्थ हूँ? यहाँ स्वस्थता से मतलब मानसिक और शारीरिक, दोनों से है। क्योंकि हर सोच का असर हमारे शरीर पर पड़ता है। यदि दु:ख व परेशानी वाली दूसरों की सोच अपने पर ले ली तो हम पर उसका असर अवश्य ही दिखाई देगा। ऐसे समय पर अगर हम अपने आपसे रोज़ पूछते रहेंगे कि ‘मैं स्वस्थ हूँ?’ तो आप अपने आप को ठीक भी कर पायेंगे और सशक्त भी कर लेंगे। 15 से 20 मिनट भी अगर आप अपनी दिनचर्या में से देते हैं तो दूसरे की परेशानी के वायरस से खुद को बचा सकेंगे। फ्लू की फीलिंग में नहीं आयेंगे। अपने को सेफ रख पायेंगे।




