मुख पृष्ठदादी जीदादी प्रकाशमणि जीकुछ सवाल हमारे और उत्तर दादी जी के

कुछ सवाल हमारे और उत्तर दादी जी के

प्रश्न : संस्कारों को बदली किया जा सकता है या नहीं? किस आधार पर हम परख सकते हैं कि मेरे संस्कार ठीक हैं?

उत्तर : ज्ञान का अर्थ ही है पुराने संस्कारों को बदलना। हम संस्कारों को ही तमोप्रधान से सतोप्रधान बनाते हैं। जहाँ परखने की बात है वह तो सहज है। यूँ तो अपने संस्कारों को जान सकते हैं परन्तु फिर भी समझो नहीं पता पड़ता तो जैसे किसके गुण वर्णन करते हैं – फलाने में यह-यह गुण हैं तो देखना है मेरे में वे गुण हैं? इसको कहा जाता है अपने को परखना। अगर मैंने अपने संस्कार को जान लिया तो फिर उसको ज्ञान से परिवर्तन करना है। परिवर्तन किया तो उसको कहा जायेगा रियलाइज़ किया। अगर परिवर्तन नहीं तो कहेंगे पूर्ण रूप से रियलाइज़ नहीं हुआ है। जिस संस्कार को मैंने रियलाइज़ किया कि यह ठीक है, वह देखना है- सबको ठीक लगता है? यदि औरों को वह ठीक नहीं लगता तो उसे ठीक नहीं कहेेंगे। हम देखते हैं यह मेरा संस्कार औरों को रूकावट डालता है तो समझना चाहिए इसको बदलना ज़रूरी है। अब उसको बदलने के लिए ज्ञान की शक्ति चाहिए। एक है अपने से रियलाइज़ करना, दूसरा है कि दूसरे हमको रिज़ल्ट में राइट नहीं समझते हैं तो रियलाइज़ माना मैं उसको चेंज करूँ।

यदि हमारा संस्कार सर्विस का सबूत नहीं देता है तो इसका मतलब कि वह संस्कार हमारा ठीक नहीं है उसको हमें बदलना है। नहीं बदलते तो ज्ञान से रियलाइज़ नहीं किया है। हमें संस्कार को उस दृष्टि व उस अन्तर से देखना है कि सर्विस करता है व नुकसान करता है।

प्रश्न : गीता में इन्सान स्वभाव के वश… इसका अर्थ क्या है?

उत्तर : लेकिन वह इन्सान की बात है, हम तो इन्सान नहीं हैं। हम कौन हैं? हम हैं ब्राह्मण। हम न इन्सान हैं, न देवता हैं। इन्सान में सहन करने की शक्ति नहीं है। निंदा-स्तुति, मान-अपमान, सहन कर सकेंगे? नहीं। क्योंकि इन्सान अर्थात् देह अभिमान वाले और देवताओं के लिए यह बात है ही नहीं। बात है अब हम ब्राह्मणों की। जैसे देखो हम कइयों को कहते हैं कि ज्ञान के बिना कोई यह नहीं सोचता कि काम विकार को वृत्ति से ही जीतना है। हम कहते हैं वृत्ति में भी यह संकल्प न उठे क्योंकि देवताओं में यह वृत्ति नहीं है। तो हम मनुष्य से देवता बनते हैं तो हमारा यह संस्कार पूर्ण रूप से परिवर्तन हुआ ना! बाबा ने युक्ति दी कि ज्ञान सहित भाई-भाई की दृष्टि से देखो तो वृत्ति बदल जायेगी। तो इन्सान के संस्कार को पलटाकर देवताई संस्कार को बदल देते हैं ना। ऐसे देखो अब बाबा हम बच्चों को बहुत सूक्ष्म में ले जाता है। बाबा कहते- बच्चे, किसी भी प्रकार की आपमें अटैचमेंट नहीं चाहिए। ब्रह्मा में भी न हो। तो जैसे बाबा एकदम देह की अटैचमेंट से हम बच्चों को परे ले जाते हैं। देहधारी का सहारा भी नहीं। बाबा कहते- बच्चे, इनसे भी परे। क्योंकि बाबा जानते हैं आत्मा देह में है तो उनका यह संस्कार है। तो बाबा हमें उनसे भी ऊंचा ले जाते कि बच्चे सहारा एक शिवबाबा का। तो देखो बाबा हमारा यह संस्कार भी बदल देते हैं ना कि किसी भी प्रकार से कोई देहधारी की याद न आये। एक शिवबाबा के सिवाए और किसी की भी याद न रहे।

कभी बात करते-करते आपस में समझो कोई ऐसा शब्द निकल जाता है तो फौरन उस समय हम बोलेंगे, ऐसा भी यह हमारी भाषा क्यों निकली? कभी कोई कहते हमें तो सहन करना पड़ता है, चलो सहन भी किया फिर वह देते आखिर भी हम कितना समय सहन करेंगे आदि। परन्तु हम कहते हैं यह भी भाषा अब क्यों होनी चाहिए फिर भी तो हम सागर के बच्चे हैं। सागर में तो सब समा जाता है। तो हमारे में सब समा जाना चाहिए। आत्मा में यह जो फीलिंग आती है कि कब तक सहन करूं- यह भी निकल जानी चाहिए। मैं सहन करती नहीं हूँ। भले ही रॉन्ग-राइट क्या भी है वह भले बताऊं। उसको समझकर मैं किनारा कर दूं। बाकी यह जो समझते हैं मैं कितना सहन करूँगी, कब तक सहन करूँ- ऐसा समझने से दिल भरती जाएगी। तो मैं ऐसे अपने दिल को क्यों भरूँ? हम तो सागर के बच्चे मास्टर सागर हैं, सब समाते जायें। ऐसा न समझें हम सहन करते हैं।

मैं तो समझती हूँ- अभी हमें यह भी नहीं समझना चाहिए कि मैं पुरूषार्थी हूँ, हम तो मास्टर सम्पूर्णता के सागर हैं, मैं तो अब समय के समीप पहुँची हूँ तो मैं अब ऐसे न कहूँ कि प्रतिशत हूँ, मुझे सर्टिफिकेट लेना है तो मैं अब प्रतिशत हूँ। बाबा कहते हैं अब तुम्हारी सम्पूर्णता की स्टेज चाहिए।

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