साकार में भी सदा साथ रहने के अनुभवी हो। अकेले रहना पसन्द नहीं करते हो। जब संस्कार ही साथ रहने के हैं तो ऐसे साथ रखने में कमी क्यों करते हो, निवृत्ति मार्ग वाले क्यों बनते हो? जैसे वह निवृत्ति मार्ग वाले प्राप्ति कुछ भी नहीं करते, ढूंढते ही रहते हैं। ऐसी हालत हो जाती है, वास्तविक प्राप्ति को प्राप्त नहीं कर पाते हो। तो सदा साथ रखो, सम्बन्ध में रहो। परिवार की पालना में रहो तो जो पालना के अन्दर सदैव रहते हैं वह सदा निश्चिंत और हर्षित रहते हैं। पालना के बाहर क्यों निकलते हो? निवृत्ति में कब ना जाओ। तो साथ का अनुभव करने से स्वत: ही सर्व प्राप्ति हो जायेंगी। सन्यासियों को इतना ठोकते हो और स्वयं सन्यासी बन जाते हो? सन्यासियों को कहते हो ना यह भिखारी हैं। इन मांगने वालों से हम अच्छे हैं। शुरू का गीत है ना – ‘मेहतर उनसे बेहतर है’ तो जिस समय आप लोग भी साथ छोड़ देते हो तो बापदादा व परिवार को छोड़ आप भी कांटों के जंगल में चले जाते हो। जैसे वह जंगलों में ढूंढते रहते हैं, वैसे ही माया के जंगलों में स्वयं ही साथ छोड़ फिर परेशान हो ढूंढते हो कि कहीं सहारा मिल जाए। निवृत्ति मार्ग वाले अकेले होने के कारण कब भी कर्म की सफलता नहीं पा सकते हैं।
जो भी कर्म करते, उनकी सफलता मिलती है? तो जैसे उन्हें कोई भी कर्म की सफलता नहीं मिलती इसी प्रकार अगर आप भी साथ छोड़ अकेले निवृत्ति मार्ग वाले बन जाते हो तो कर्म की सफलता नहीं होती है। फिर कहते हो सफलता कैसे हो? अकेले में उदास होते हो तो माया के दास बन जाते हो। न अकेले बनो, न उदास बनो, न माया के दास बनो।



