दीर्घकाल तक राज्य करने के उपरांत महाराजा यताति ने पुत्र को राज्य सौंप दिया और स्वयं जंगलों में जाकर तप करने लगे। कठोर तप के फलस्वरूप वे स्वर्ग में पहुंचे। वह कभी देवताओं के साथ स्वर्ग में रहते, कभी ब्रह्मलोक पहुंच जाते। उनका इतना मान था कि अन्य सभी उनसे इर्षा करने लगे। वे इंद्र की सभा में जाते तो उनके तप के कारण, इंद्र उन्हें अपने से नीचे के आसन पर नहीं बैठा सकते थे। इंद्र को उन्हें अपने ही आसन पर बिठाना पड़ता था। लेकिन यह बात इंद्र को भी अप्रिय लगती थी। कहा जाता है कि देवता भी मृत्युलोक के किसी जीव के इंद्रासन पर बैठने को स्वीकार नहीं कर पाते थे। इंद्र देवताओं की भावनाओं से परिचित थे। एक दिन इंद्र ने यताति से कहा- आपका पुण्य दोनों लोकों में विख्यात है। आपकी समानता भला कौन कर सकता है? मुझे यह जानने की इच्छा है कि आपने कौन-सा तप किया, जिसके प्रभाव से ब्रह्मलोक में जाकर इच्छा अनुसार जाकर रह सकते हैं?
अपनी प्रशंसा सुनकर यताति, इंद्र की वाणीजाल में आ गए उन्होंने कहा- हे इंद्र देेवता, मनुष्य, गंधर्व और ऋषियों में कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे समान तपस्वी हो। बस फिर क्या था, इंद्र का स्वर कठोर हो गया। इंद्र ने कहा- यताति तत्काल मेरे आसन से उठ जाओ। अपनी प्रशंसा अपने ही मुख से कर, तुमने अपने ही सारे पुण्य समाप्त कर लिए हैं। तुमने यह जाने बिगर कि देवता, मनुष्य, गंधर्व और ऋषियों ने क्या तप किए, उनसे तुलना की और उनका तिरस्कार भी कर दिया! अब तुम स्वर्ग से गिरोगे। आत्म-प्रशंसा ने यताति के तप का फल समाप्त कर दिया और वे स्वर्ग से गिरा दिए गए।
इसलिए कहा गया है कि व्यक्ति को आत्म-प्रशंसा से दूर रहना चाहिए। स्वयं अपनी प्रशंसा करेंगे तो पुण्य का तो क्षय होगा ही, पतन भी हो जाएगा। स्व-प्रशंसा से लोगों के मन में हमारी छवि अच्छी नहीं बनती। जबकि ज्य़ादा प्रशंसा करने वाला व्यक्ति स्वयं को उपहास का पात्र बना लेता है। यदि समय रहते इस आदत पर नियंत्रण नहीं रखा गया, तो यह हमारे स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। जिस दिन स्व-प्रशंसा और पर-निंदा से हम ऊपर उठ जाते हैं, उस दिन हम देवत्व को प्राप्त कर लेते हैं।
स्वयं अपनी प्रशंसा करना या दूसरों के मुख से प्रशंसा सुनने की इच्छा रखना, दोनों ही अपने अस्तित्व को ईश्वर की महिमा से अलग करना है क्योंकि हमारे द्वारा किया गया अच्छा काम, स्वयं ही हमारी अच्छाइयों को रेखांकित करता है। जब व्यक्ति स्वयं ही अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता है तो इसमें अहंकार झलकने लगता है। इसलिए कहावत है कि समग्र शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना सरल है, लेकिन स्व-प्रशंसा के भाव को अपने हृदय से निकालना अत्यंत कठिन है।
प्रशंसा सुनने की पात्रता होना ज़रूरी है – प्रशंसा व्यक्ति को तत्काल ही प्रभावित करती है क्योंकि इससे उसके अहम की तुष्टि होती है। अहम अहंकार का विकराल रूप धारण कर अन्य मानसिक विकारों को भी आमंत्रित कर लेता है। कहा जाता है कि यदि आप एक विकार को आमंत्रित करते हैं वह अपने कुनबे के साथ हाजि़र हो जाता है। इसलिए व्यक्ति में प्रशंसा सुनने की पात्रता होना ज़रूरी है। इस पात्रता से ही उसकी क्षमता का आंकलन किया जा सकता है कि वह प्रशंसा को पचा पा रहा भी है या नहीं।
प्रशंसा की भूख तृप्त नहीं होती – किसी के गुणों की प्रशंसा करने में अपना समय नष्ट न करके, गुणों को अपनाने का प्रयत्न करें। प्रशंसा से बचें, यह आपके व्यक्तित्व की अच्छाइयों को घुन की तरह चाट जाती है। प्रशंसा की भूख जिसे लग जाती है, वह कभी तृप्त नहीं होती है। प्रशंसा एक ऐसा जाल है, जिसमें तेज रफ्तार से परिंदा खुद आकर फँस जाता है। प्रशंसा केवल भड़कीले वस्त्रों में लिपटा हुआ असत्य है।
मिथ्या प्रशंसा से पतन होता है – मिथ्या प्रशंसा और चापलूसी मनुष्य को गलत मार्ग पर ले जाती है और परिणाम स्वरूप कहने वाले और सुनने वाले का पतन ही होता है। इसलिए प्रशंसा में सदा ईमानदारी, निष्पक्षता और सच्चाई होना ज़रूरी है। इसी प्रकार यदि शत्रु की प्रशंसा की जाए तो शत्रुता घट जाती है। अपने से छोटे, सेवक, भृत्य आदि की प्रशंसा करने से भी कभी नहीं चूकना चाहिए क्योंकि इन श्रेणी के लोगों से प्रशंसा प्राप्त करने के अवसर बहुत ही कम मिलते हैं।
प्रशंसा से विचलित होना चाहिए या नहीं? – एक बार समुद्र पर एक बच्चा खेल रहा था। अचानक समुद्र से एक लहर आई और बच्चे का चप्पल समुद्र में चला गया। इस पर बच्चा गुस्सा हो गया और समुद्र की रेत पर लिख दिया-”समुद्र चोर है”। वहाँ से थोड़ी दूर एक मछुआरा समुद्र में से काफी मछलियां पकड़कर लाया था। उसने समुद्र की रेत पर लिख दिया- ”समुद्र तो हमारा पालनहार है”। एक दुखियारी माँ का बेटा समुद्र में डूब कर मर गया। उसने रेत पर लिख दिया- ”समुद्र मेरे बेटे का हत्यारा है”। एक युवक को समुद्र किनारे से सीप में से कीमती मोती मिला। उसने समुद्र की रेत पर लिख दिया-”समुद्र बड़ा ही दानवीर है”। और समुद्र में फिर एक लहर आई और जो कुछ लिखा था, सब मिटाकर अपनी मौज में वापस चली गई।
अत: जैसे समुद्र के लिए उन प्रशंसा या आलोचना का कोई मूल्य नहीं है, वो तो बस अपने कार्य में लगा रहता है। वैसे ही इंसान को ज्य़ादा प्रशंसा सुनकर, अहंकार नहीं पालना चाहिए और आलोचना सुनकर दु:खी हो अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होना चाहिए। अच्छे इंसान द्वारा की गई प्रशंसा को प्रेरणा बनाकर हमें अपने कार्य में और ज्य़ादा मेहनत करने के लिए प्रेरित होना चाहिए। प्रशंसा हमें अच्छे कार्य के लिए प्रेरित कर सकती है या अहंकार पैदा कर गिरा भी सकती है। प्रशंसा या आलोचना को धीर-गंभीर लोग तुरंत पचाने लग जाते हैं और किसी अच्छे कार्य के लिए प्रेरित भी होते हैं।




