कृष्ण मानवता का एक दृष्टिकोण है। सभी उसको अपने हिसाब से समझने का प्रयास करते हैं। सबके जीवन में अलग-अलग अर्थ और भाव लिए कृष्ण पनपते हैं। तो कृष्ण को कृष्ण के हिसाब से समझने के लिए उसके अन्दर के गुणों को, भावों को पकडऩा और उसको शब्दों के धरातल से उठकर अनुभव के धरातल पर लाकर समझना होगा। तब उसे हम समझ पाएंगे।
इस दुनिया में देवताओं की जो फेहरिस्त है उसमें सबसे ज्य़ादा उत्तम, सबसे ज्य़ादा पूजनीय, माननीय और सबके अन्दर बसने वाला एक नाम है- वो है श्रीकृष्ण का। लेकिन एक आभा ऐसी है, एक औरा ऐसा है जिसको इतने समय तक लोग याद रखते हैं। आज भी कलियुग के दौर में भी इतनी शिद्दत के साथ उनकी पूजा होती है, उनको पहचानते हैं, उनके साथ बैठते हैं, और बात भी करते हैं।
तो प्रश्न उठता है कि हम सभी उस आकर्षणमय आभा के करीब कब पहुंचेंगे? जन्माष्टमी तो सिर्फ एक त्योहार के रूप में हम सबके सामने है। लेकिन उसका मानवता के ऊपर प्रभाव और मानव मन उससे कैसे सुख पाए, उस बात को समझना अति आवश्यक है। आपको पता है कि आजकल जो रिसर्च चलता है वैज्ञानिक कहते हैं, मनोवैज्ञानिक भी कहते हैं कि हम सबके अन्दर एक भाव होता है- उदारता का, सबके लिए क्षमाशीलता का, सबके लिए अच्छा सोचने का, इतने सारे जो छोटे-छोटे भाव होते हैं तो ये भाव हमारे अन्दर का वातावरण बदल देते हैं। और अन्दर का वातावरण बदलते ही हमारा सूक्ष्म शरीर एक्टिव हो जाता है, सक्रिय हो जाता है। तो ये देखो कितना प्रायोगिक है, कितना प्रैक्टिकल है कि एक है अभ्यास से मैं सारी चीज़ें ठीक कर रहा हूँ, बहुत अच्छी बात है। लेकिन दूसरा है प्राकृतिक रूप से, नैचुरल तरीके से हमारे अन्दर ये सारी चीज़ें आ रही हैं। लेकिन जो श्रीकृष्ण थे, वो एक सम्पूर्ण मानव थे। जिसमें सर्व गुण, सर्व शक्तियां मौजूद थीं लेकिन वो उसको उन्होंने नैचुरल बनाया। कैसे बनाया होगा?
इस दुनिया में जब हम कुछ पाने की चाह रखते हैं, कोई इच्छा रखते हैं तो आप देखो सारी ऊर्जा उस इच्छा को पूरा करने में लग जाती है। क्योंकि जब हम इच्छा को पूरा करेंगे तो बहुत सारी बाधाएं भी आयेंगी, उसमें स्वार्थ भी आयेगा। आपका ऊपर-नीचे करने का मन भी करेगा। जब ये सारा शुरू हो जाता है तो समझो हम मनुष्य की स्थिति में हैं, मनुष्यता की स्थिति में जी रहे हैं। क्योंकि प्रकृति से बना हुआ शरीर है और जो भी इच्छा होगी वो प्राकृतिक ही तो होगी ना! लेकिन परमात्मा कहता है कि हम सबकी इच्छाएं ही हम सबको नीचे गिराती हैं, अवगुण लाती हैं।
तो कृष्ण का सबसे पहला जो कार्य था बनने का, कोई भी इच्छा है उसका ज्ञान ही नहीं था। पूरी तरह से एक निष्काम योगी की तरह जीवन था। और वो जीवन उन्होंने अभ्यास से नहीं, उसको समझकर बनाया। क्योंकि अभ्यास जब हम करना शुरू करते हैं किसी चीज़ का तो उसमें हमारा एफर्ट लगता है। लेकिन जैसे ही सब समझ में आता है कि हमारा शरीर यहाँ के कर्म, यहाँ की सारी चीज़ें यहीं रह जानी हैं। सिर्फ हम थोड़े दिन के लिए भूमिका निभाने आये हैं। हमारे अन्दर वो सारी बातें नैचुरल सी हो जाती हैं। जिस बात की समझ आकर्षण पैदा करती है और हमारा आभा चमकना शुरू हो जाता है। आप देखो बहुत सारे संत महात्मा जिनको इसदुनिया की चाह नहीं है, उनके पास भी औरा इतना अच्छा होता है, अच्छा लगता है। क्योंकि श्रीकृष्ण ने कितना काम किया होगा! कितना सोचा होगा, कितना गहराई से सोचा होगा कि आज भी वो आकर्षण में, वो आभामंडल हम सभी को उनको पूजने के लिए विवश करता है, उनको देखने के लिए विवश करता है।
तो ऐसा कृष्ण, ऐसी कृष्ण जन्माष्टमी हर साल एक त्योहार के रूप में, एक परम्परा के रूप में हम मनाते हैं। लेकिन अगर उसको जीवन में उतारना है तो सबसे पहले सारे गुणों को जो सबसे पहला गुण, सबसे बड़ा गुण उदारता का। सबको क्षमा करने का, आधार, उद्धार, सबके जीवन को अच्छा बनाने का, सबकी भावनाओं को श्रेष्ठ बनाने का, ये कार्य अगर हमारे जीवन में आना शुरू हो तो वही स्थिति आप अनुभव कर पाएंगे। तो अभी श्रीकृष्ण को पूजना नहीं है, उनके जैसा बनना है। आपने अगर कृष्ण लीला देखी हो तो उसमें इन्द्र की पूजा के लिए कृष्ण स्वयं मना कर रहे हैं। वो कह रहे हैं कि बाल लीला दिखाया है तो बाल लीला का अर्थ ही है कि आप अपने चैतन्य को अच्छा बनाओ। मूर्ति पूजा करने से क्या होता है! लेकिन जब चैतन्य को हम अच्छा बनायेंगे तो ऑटोमेटिकली पूरा जीवन उसी आभा के साथ जुडऩा शुरू हो जाएगा और अब कृष्ण नज़र आने लग जाएंगे। कृष्ण के औरे के साथ मैच करेंगे। तो हम सभी उस स्थिति में नहीं जाना चाहते? जाना तो चाहते हैं लेकिन उसका सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है, तो इसको समझना बहुत ज़रूरी है। नहीं तो एक त्योहार बनकर रह जाएगा



