कहावत यह है कि हमेशा सबकी बातों को समाकर रखने वाला बहुत शक्तिशाली होता है। लेकिन उन्हीं बातों को अगर कोई कहीं कह दे तो सबकुछ बिगड़ जाता है। विघ्न, समस्यायें एक उदरशूल की तरह हैं, जो कभी भी एक छोटी-सी बात से पूरे समाज में हड़कंप सी मचा देती है। आज हर एक व्यक्ति ऐसे लम्बोदर की तलाश में है जो सबको समा ले और किसी से कुछ न कहे। क्या हम भी ऐसे विघ्नहर्ता बन सकते हैं? या इस गणेश उत्सव पर सिर्फ विघ्नहर्ता की पूजा ही करेंगे! आओ इसकी कुछ युक्ति रचते हैं।
आज गणेश को विनायक, सिद्धि विनायक, लम्बोदर, विघ्नहर्ता, एक दन्त वाला, मूषक सवार आदि-आदि नामों से जाना जाता है। ऐसे दयावन्त गणेश को हम सभी देखते आये हैं। हर साल देखते ही हैं, लेकिन वो एक मूर्ति प्रतीकात्मक रूप से हमारे सामने है। आज तक साइंस भी इस बात का समाधान नहीं ढूंढ पाई कि एक मनुष्य के शरीर का कोई अंग दूसरे मनुष्य के शरीर में शिफ्ट किया जाए तो एकदम से वो उसको स्वीकार कर ले। इसके लिए भी कितनी प्रिकॉशन्स लेनी होती हैं। लेकिन कई बार ये सफलता पा लेता है और कई बार नहीं पाता। ऐसे में किसी मनुष्य के धड़ पर हाथी का सिर हो, वो उसे कैसे स्वीकार करेगा! मेडिकल साइंस के पास इसका कोई जवाब नहीं है। आज हम आधुनिकता में जी रहे हैं। अपने आप को आधुनिक समाज का कहते हुए भी हमने ये स्वीकार किया है कि एक मनुष्य के धड़ पर हाथी का सिर आराम से स्थित हो सकता है। आज सिद्धि-विनायक के मंदिरों में इतनी शक्ति है कि वहाँ बड़े-बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, समाज के बुद्धिजीवी लोग जाकर माथा टेकते हैं और ऐसा कहते हैं कि हमारी मनोकामना पूरी हो जाती है। दुनिया में अगर किसी बच्चे के एक्स्ट्रा हाथ-पैर हो जाएं या पैदा होते ही कोई अंग बढ़ जाए तो ऑपरेशन कराने के लिए लोग भागदौड़ शुरू कर देते हैं, लेकिन चार हाथ-आठ हाथ वाले देवी देवताएं हमको स्वीकार हैं! हमें लगता है कि वो मूर्ति है इसलिए शायद लोगों ने इसे स्वीकार किया हुआ है। अगर वो भी जीवंत होती तो उसको स्वीकार करना हमें मुश्किल होता। मानव की मनोदशा आज इतनी विक्षिप्त है कि मान्यताओं और परम्पराओं को लेकर ही आज मनुष्य आगे बढ़ रहा है। जहाँ वो देख रहा है कि थोड़ा भी हमें कुछ मिल रहा है, थोड़ी-सी प्राप्ति हो रही है, वो उस देवता को या मंदिर को फटाफट स्वीकार करके वहाँ पहुंच जाता है। सभी के संकल्पों का बल उसे वहाँ पर प्राप्ति कराता है, ना कि उस मूर्ति के अंदर ऐसी कोई ताकत है।
गणेश को देवताओं में सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। उसको श्रेष्ठ मानने का आधार क्या हो सकता है? क्योंकि जब मनुष्य इतना विक्षिप्त है, उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है, ऐसे में ऋषि-मुनि तपस्वियों ने सबसे समझदार मनुष्यों के बाद कोई प्राणी आता है तो वो है हाथी, तो उन्होंने हाथी के सिर को मनुष्य के धड़ पर रखा और एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व बनाने की प्रेरणा ली।
मनुष्य जब कभी भी गणेश के चित्र के सामने जाता है तो उसको कभी भी एक मानव का दर्शन नहीं होता, उसमें एक जानवर है और दूसरा एक मनुष्य है। तो लोग दर्शन तो सबसे पहले हाथी का ही करते हैं। इसका प्रतीकात्मक बनने के पीछे एक रहस्य है। हाथी बहुत सतर्क होता है, सूंड लम्बी होती है जिससे वो पहले से ही हरेक चीज़ को फूंक-फूंक के परख लेता है कि ये चीज़ ठीक है या नहीं है। तो ये सतर्कताका प्रतीक है। मनुष्य को भी दूर से ही हरेक चीज़ को परखकर चलना चाहिए। इसके अलावा हाथी के कान बहुत बड़े-बड़े होते हैं जिसका अर्थ है कि कोई भी व्यर्थ की बातों को ज्य़ादा नहीं सुनना, उसे उड़ा देना, समर्थ बातों का ही सेवन करना।
हाथी की आँखें छोटी दिखाई जाती हैं, उसका अर्थ है स्वयं को देखना या सबको महान देखना क्योंकि हाथी की आँखों में सिलिन्ड्रिकल लेंस होते हैं, जिससे वो सभी को डबल देखता है और इस कारण किसी पर अटैक नहीं करता। इसलिए हम मनुष्य आत्माओं को भी सभी को बड़ा देखना है, महान देखना है।
हाथी का पेट बहुत बड़ा होता है। पेट बड़ा होना सुख की निशानी है और सुख वही प्राप्ति कर सकता है जो सबकी बातों को समा ले, स्वीकार कर ले। हमेशा मोदक खाने का अर्थ है कि निरंतर मुख से मिठास ही बाहर आये। उनकी सवारी चूहा दिखाया। अब इतना बड़ा गणेश और इतना सा चूहा, अगर सचमुच गणेश जी उसपर बैठ जायें तो उसका क्या हाल होगा! चूहा माया की निशानी है, जो पहले फूंकता है फिर काटता है और मनुष्य को पता भी नहीं चलता। ऐसे ही जब कोई बात छोटी-सी माया की हमारे पास आती है, तो वो हमको लगती बहुत छोटी है, लेकिन वो धीरे-धीरे हमारे साथ-जुड़ते-जुड़ते बहुत बड़ी हो जाती है अगर उसपर ध्यान नहीं दिया जाये तो। इसलिए माया रूपी चूहे पर हमेशा सतर्क रहना या उसको अपने वश में रखना, उसकी सवारी करना है, अगर हमने आँख-नाक, कान-मुँह, इन सबको अपने वश में रख लिया तो व्यर्थ तो वैसे ही समाप्त हो गया। ये मूल रूप से हमारी पंच इंद्रियां हैं जिनको जो जितना वश रखता है उतनी समस्या नहीं आती, उतने विघ्न नहीं आते। इसलिए इस गणेश चतुर्थी पर हम सभी इसके मूल अर्थ को समझ करके अपनी इंद्रियों पर संयम रखें और स्वयं अपने आप को निर्विघ्न बनाकर, घर को भी निर्विघ्न बनाकर साथ में समाज के हर एक व्यक्ति को निर्विघ्न बनाकर पूरे विश्व में निर्विघ्न स्थिति ला दें। यही गणेश चतुर्थी के साथ सच्चा न्याय होगा।




