मुख पृष्ठब्र.कु. शिवानीपरमात्मा की याद में बना भोजन प्रसाद है

परमात्मा की याद में बना भोजन प्रसाद है

परेशान मन है तो रसोई में नहीं जाइए, रोते-रोते खाना नहीं बनाइए। पहले पांच मिनट बैठिए, कुछ पढि़ए, कुछ सुनिए, अपने मन को ठीक करिए और फिर रसोई में जाइए। और फिर रसोई में परमात्मा की याद के शब्द चलाइए। एक भी रसोई ऐसी नहीं होनी चाहिए जो खाना ऐसे ही बन रहा हो।

संत आत्मा वो जो खाने में सिर्फ प्रसाद खाएंगे। क्योंकि जैसा अन्न-वैसा मन और जैसा पानी-वैसी वाणी। तो अगर हमें अपने वायबे्रशन को ऊपर उठाके लेके जाना है तो अपने अन्न और पानी पर अटेन्शन। सात्विक भोजन, सात्विक तरह से बना हुआ अपनी रसोई को भगवान का भण्डारा बनाएं, और उसमें सिर्फ और सिर्फ प्रसाद बनाएं।

प्रसाद कैसे बनता है? किसी दिन कुछ पूजा होती है, कोई हवन होता है घर में, तो हम कहते हैं ना कि आज कड़ा प्रसाद बन रहा है। दूसरे दिन हम कहते हैं कि आज हलवा बन रहा है। अब जिस दिन कड़ा प्रसाद बन रहा है उस दिन एनर्जी चेंज हो जाती है। तो कभी-कभी क्यों प्रसाद बनाना, रोज़ क्यों नहीं बनाना? क्योंकि अगर परिवार का सदस्य रोज़ प्रसाद खाएगा तो उसका बिना कुछ करे वायबे्रशन चेंज होता जाएगा। तो प्रसाद जिस दिन बनाना होता है उस दिन क्या चेंज करते हैं घर में? उस दिन ना तो लहसून-प्याज़ और ना ही नॉन-वेज का यूज़ करते हैं। जब भगवान को याद करके भोजन बनाते हैं तब वो प्रसाद है। तो कितने दिन प्रसाद बनना चाहिए घर में? दिन में कितनी बार? आप सबकी जि़म्मेवारी है कि जो प्रसाद बना रहा उनको कभी डांटना नहीं।

दो लोगों को कभी नहीं डांटना चाहिए, एक तो वो जो आपकी गाड़ी चलाते हैं और दूसरा जो आपका भोजन बनाते हैं क्योंकि रिस्क आपका ही है। जो घर में खाना बनाते हैं ना उनका मन हमेशा शान्त होना चाहिए। क्योंकि जब वो घर में खाना बना रहे हैं तो उनके मन की स्थिति सारी भोजन में जाती है। तो उनको डांट कर रसोई में कभी नहीं भेजना।

इसलिए आज से एक और एक्सपेरिमेंट करते हैं। ऐसा भोजन जिसमें किसी का दर्द है, ऐसा भोजन जिसमें किसी की मृत्यु है- ये सेहत नहीं हो सकता। एक बार जाके ऑनलाइन आप देखना एक वीडियो- स्लॉटर हाउस(बूचडख़ाना)। जिसमें आप देखेंगे कि कैसे रखा जाता है, कितना टॉर्चर है और फिर कितना दर्द है, कितना गुस्सा है, कितना हेल्पलेसनेस है और फिर उसके बाद हिंसा है और फिर उसके बाद मृत्यु है। और हमारी प्लेट में आता है तो कहते कि कितना टेस्टी है! संत आत्मा ऐसे नहीं करेगी।

दर्द है उसमें, हिंसा है, मृत्यु है। हम इतने स्वार्थी नहीं हैं कि हम अपने स्वास्थ्य के लिए किसी की मृत्यु। ये कर्मा ही नहीं बनता एक्चुअली, कि मेरी हेल्थ के लिए किसी की डेथ हो ये कर्मा नहीं बन सकेगा। प्रोटीन मिल सकती है, हेल्थ नहीं मिल सकती किसी और की डेथ से।

तो हम सोचें जैसा अन्न-वैसा मन। तो मृत्यु वाला अन्न नहीं, दर्द वाला अन्न नहीं, हिंसा वाला अन्न नहीं। प्रसाद खाइये और परिवार को प्रसाद खिलाइए। जहाँ तक हो सके घर में बना हुआ हो। तन की सफाई, मन की सफाई। परेशान मन है तो रसोई में नहीं जाइए, रोते-रोते खाना नहीं बनाइए। पहले पांच मिनट बैठिए, कुछ पढि़ए, कुछ सुनिए, अपने मन को ठीक करिए और फिर रसोई में जाइए। और फिर रसोई में परमात्मा की याद के शब्द चलाइए। एक भी रसोई ऐसी नहीं होनी चाहिए जो खाना ऐसे ही बन रहा हो। परमात्मा की याद के शब्द जैसे मन्दिर में बजते हैं, जैसे गुरुद्वारे में बजते हैं हम सबकी रसोई में बजने चाहिए, तब वहां से प्रसाद बनकर आएगा।

आजकल तो फिल्म के गाने चलते, रसोई में भोजन बन रहा है। कान में हेडफोन लगा लिया और अपनी फ्रेन्ड से बातें करते-करते भोजन बन रहा है। ऐसा भोजन खाना नहीं। क्योंकि ऐसा भोजन ताकत देने के बजाए और ही हमें मानसिक रूप से कमज़ोर करता जाएगा। हेडफोन कान में लगा लिया, फोन पॉकेट में रख लिया और भोजन बनाते गए, दुनिया के बारे में बातें करते गए। एक-एक शब्द खाने में जा रहा हैं, जैसा अन्न-वैसा मन बन रहा है। तो रोज़ प्रसाद बनाइए, पानी को अमृत बनाइए। पानी पीने से पहले और भोजन करने से पहले परमात्मा को याद करके उसमें अच्छे-अच्छे शब्द भरिए और ऐसा भोजन करेंगे तो आपका मन भी बदल जाएगा और वाणी भी बदल जाएगी। क्योंकि जैसा अन्न-वैसा मन और जैसा पानी-वैसा वाणी। तो कड़वा पानी को साइड कर देना है। क्यों ऐसी चीज़ें करें जो हमारे वायब्रेशन्स को नीचे लेकर आता है? जो चीज़ हमारे मन और शरीर के लिए हानिकारक है उसको एक ही संकल्प में स्वाहा कर देना चाहिए, स्विच ऑफ। तो होम वर्क सेट कर लेना है। तो ये सबकुछ करने के लिए सिर्फ एक चीज़ ध्यान रखनी है कि फोन और टीवी से ऐसी कोई बातें कंज्यूम नहीं करनी हैं कि हमें हमारा होमवर्क ही भूल जाए।

सबसे बड़ा संग का रंग तो वही है। संत आत्मा अर्थात् सतसंग। सारा दिन ऐसी मूविज़ देखना, ऐसे गाने सुनना, ऐसे वीडियोज़ देखना, ऐसा सीरियल देखना जिसमें शब्द ही लो क्वॉलिटी के हैं। थोड़े दिन के बाद वो शब्द हमारी भाषा बन जाते हैं। जैसे बच्चा स्कूल जाता है वो भी वो शब्द सीख लेता है ना! हम भी सारा दिन शब्द सीख रहे हैं। तो ऐसे-ऐसे जो हम शब्द सीख रहे हैं उसे स्विच ऑफ करने की ज़रूरत है। संस्कार बदल रहे हैं, संस्कृति बदल रही है, संसार बदल रहा है।

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