मुख पृष्ठब्र.कु. जगदीशआज जि़म्मेदारी लेने की कोई बात ही नहीं कर रहा

आज जि़म्मेदारी लेने की कोई बात ही नहीं कर रहा

हम कोई ऐसी जि़म्मेदारी लेने की बात नहीं कर रहे हैं जिसमें कुछ पैसा खर्च होता हो, कुछ समय लगाना पड़ता हो, शरीर से कुछ अधिक काम करने की ज़रूरत हो या हमारी पहले की जि़म्मेदारियों में कोई ऐसी जि़म्मेदारी जुड़ जाए कि हम इस जि़म्मेदारी के बोझ को उठाने में असमर्थ हों। जि़म्मेदारी तो हरेक व्यक्ति लेता है और मनुष्य ने कई व्यर्थ जि़म्मेदारियाँ भी ले रखी हैं। हम तो ऐसी जि़म्मेदारी बता रहे हैं जिससे हमें झंझटों से छुटकारा मिल जाए, मन को राहत महसूस हो और शरीर में भी हल्कापन आ जाए।

पुरूषार्थ क्या है? पुरूषार्थ यह है कि हर कोई स्वयं अपनी जि़म्मेदारी ले-ले। दूसरे की जि़म्मेदारी लेना तो कठिन होता है परन्तु अपनी जि़म्मेदारी तो ली ही जा सकती है क्योंकि इसका लाभ हमें ही होने वाला है। अगर हम अपनी जि़म्मेदारी लेने में भी स्वयं को असमर्थ अनुभव करते हैं तो सामथ्र्य भी हमें मिल सकती है।

अगर और कुछ नहीं कर सकते तो हम जि़म्मेदारी लेने का इरादा तो करें। हम कोई ऐसी जि़म्मेदारी लेने की बात नहीं कर रहे हैं जिसमें कुछ पैसा खर्च होता हो, कुछ समय लगाना पड़ता हो, शरीर से कुछ अधिक काम करने की ज़रूरत हो या हमारी पहले की जि़म्मेदारियों में कोई ऐसी जि़म्मेदारी जुड़ जाए कि हम इस जि़म्मेदारी के बोझ को उठाने में असमर्थ हों। जि़म्मेदारी तो हरेक व्यक्ति लेता है और मनुष्य ने कई व्यर्थ जि़म्मेदारियाँ भी ले रखी हैं। हम तो ऐसी जि़म्मेदारी बता रहे हैं जिससे हमें झंझटों से छुटकारा मिल जाए, मन को राहत महसूस हो और शरीर में भी हल्कापन आ जाए।

जि़म्मेदारी केवल यह है कि हम स्वयं को विधायक समझें – वह जि़म्मेदारी यह है कि हममें से हरेक स्वयं को विधायक समझें, अर्थात् हरेक व्यक्ति अपनी बुद्धि में इस विचार को दृढ़ रख कर कर्म करे कि उसका कर्म ऐसा श्रेष्ठ हो कि वह नियम, मर्यादा या कानून के समान हो। तब हरेक व्यक्ति स्वयं को विधायक समझेगा और विधि-पूर्वक तथा नियम-पूर्वक कार्य करेगा।

हम कोई ऐसा विधायक बनने के लिए नहीं कह रहे हैं जिसके लिए चुनाव लडऩे की ज़रूरत हो और जो विधान सभा भंग होने पर छूट जाए। यह तो पोस्टरबाज़ी, नारेबाज़ी, भाषणबाज़ी आदि के चक्कर में पडऩे के बिना ही विधायक बनने की बात है। विधान सभा वाले कई विधायक तो स्वयं भी कानून तोड़ देते हैं परन्तु हम तो जीवन को ऐसा विधिपूर्वक बनाने की बात कह रहे हैं कि आपका हर कर्म लोगों के सामने पालनीय अथवा अनुकरणीय विधान या आदर्श हो। यहाँ तो इस जि़म्मेदारी को लेने की बात हो रही है कि हम चारित्रिक नियमों, आध्यात्मिक नियमों का सदा पालन करेंगे और हमारा जीवन ही विधान की खुली किताब होगा। जिसका जीवन और कार्य-व्यवहार विधि और विधान पूर्वक हो वही तो वास्तव में ‘ज्ञानी’ और ‘योगी’ है। ‘ज्ञानी’ कहते ही उसको हैं कि जो कर्मों और आचरण को दैवी गुणों से युक्त करना जानता हो और ‘योगी’ की परिभाषा ही यह है कि वह ‘युक्ति-युक्त’ रीति से हरेक कार्य करता हो।

विधाता का परिचय और उसकी स्मृति – परन्तु इस प्रकार विधि और विधान के अनुरूप कार्य करने और स्वयं को विधायक समझने के लिए ज़रूरी है कि हम ‘विधाता’ को जानें और कर्म करते समय उसका बताया हुआ विधान हमारी स्मृति में रहे। परमात्मा को ‘विधाता’ कहा ही इसलिए जाता है कि वह कर्मों का विधान बता कर और उसके अनुरूप जीवन बनाने की विधि समझा कर हमारे भाग्य का विधाता बनता है।

तो परमात्मा को ‘भाग्य-विधाता’ तो कहते हैं परन्तु वे ये नहीं जानते कि परमात्मा विधि-विधान बता कर हमारे जीवन को श्रेष्ठ बनाते हैं और उससे ही हमारा भाग्य बनता है। हमें ये मालूम होना चाहिए कि परमात्मा अथवा विधाता के जो गुण हैं, वे ही श्रेष्ठ विधान की नींव हैं। परमात्मा के गुणों का वर्णन करते हुए प्राय: कहा जाता है कि वह पवित्रता, शान्ति, प्रेम, न्याय, सद्भावना, करुणा, सत्यता, दिव्यता और सद्गुणों का भंडार है। इन्हीं गुणों से वह नये समाज का निर्माण करता है। इन्हीं के द्वारा ही वह मनुष्य का भाग्य बनाता है। यही उसके विधान की बुनियाद है। यदि हम कर्म करते समय विधाता को सामने रखेंगे तो उसके ये गुण हमारी स्मृति में रहेंगे और इन द्वारा ही हम विधायक बन सकेंगे अर्थात् ऐसे कर्म कर सकेंगे जो विधि और विधान के अनुसार हों।

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