योग अर्थात् एक बल, एक भरोसा

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भगवानुवाच- योगयुक्त वत्सों, योगी की अवस्था बड़ी मस्त होती है क्योंकि वह पवित्रता में रहते हुए संसार के सब सहारों और आधार से उपराम होकर निर्संकल्प और निर्भय रीति से एक मुझ सर्वशक्तिमान से अपना सर्व सम्बन्ध जोड़, अतिन्द्रिय सुखमय जीवन व्यतीत करता है। जैसे एक सच्चा आशिक खाते-पीते अथवा जीवन निर्वाहार्थ कार्य करते भी अपनी माशूका(प्रेमिका) की याद में मस्त रहता है, अथवा जैसे किसी पतिव्रता स्त्री की लगन अपने पति से ही लगी रहती है। ऐसे ही सच्चा योगी भी अपने मन में संसार के सर्व सम्बन्ध तोड़ स्वयं को कर्मातीत निश्चय कर, बस एक मुझ ही से प्रीति जोड़ता है। उसे भले ही कितनी भी परीक्षाएं आती हैं, कष्ट सहन करने पड़ते हैं, परन्तु वह एक मुझ सर्व-समर्थ के सहारे पर अडोल रीति खड़ा हो, क्ररिंचकञ्ज भी न मुरझाता न डगमगाता, क्योंकि वह तो मेरे ही अर्पणमय होकर जीता है ना, मेरे ही अर्थ निमित्त हो सब कर्म करता है ना! इसलिये, वह मुझे ही रक्षाकारी, पालनहार, सद्गतिदाता प्रभु निश्चय कर, उपराम चित्त हो निरन्तर मुझ ही से बुद्धि की सूक्ष्म तारों द्वारा, मेरा ज्ञान, शान्ति, शक्ति, प्रेम इत्यादि का अव्यक्त वर्सा(सम्पत्ति) पाते दिन-प्रतिदिन उन्नति को प्राप्त होते रहता है। मेरी याद में रहने, मेरा ही परिचय दूसरों को देने, मेरे ही प्रेम में मुग्ध हो, मेरे स्वरूप को मनन कर वह हर्षित होता रहता है और अपने जीवन को अलौकिक, अनमोल, दिव्य बनाते हुए दूसरों को भी अपने समान बनाने की सर्विस में तत्पर रहता है।
अब ऐसा योग तो तुम्हारे सिवा अन्य कोई जानता नहीं क्योंकि यह रूहानी योग रूहों के मुझ पिता के सिवा और कोई सिखा नहीं सकता। जब मैं स्वयं ब्रह्मा के साकार मनुष्य-तन में पधार कर अपना परिचय दे, अपनी प्रॉपर्टी(अविनाशी सम्पत्ति) का साक्षात्कार कराके, अपने दिव्य चरित्रों से बहला कर, विनाश की बात समझा कर, प्रैक्टिकल रीति से अपने साथ सर्व-सम्बन्ध जुटाने की युक्ति बताऊँ तभी तो एक मेरी ही सर्वोत्तम मत पाकर, अन्य सभी सम्बन्धों से उपराम हो कोई मेरे साथ योग जुटा सके।
परन्तु इन बातों से अपरिचित होने के कारण वर्तमान समय तक भारतवासी अनेक प्रकार के हठयोग और शारीरिक योग करते आए हैं जिससे वो सम्पूर्ण सुख और शान्ति और दैवी जीवन को पा ही नहीं सकते। उन्हें उस सहज ज्ञान-योग का परिचय ही नहीं जिससे मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर के विकर्म विनाश हों, नये संस्कार और नया जीवन बने। हठ द्वारा अथवा शारीरिक साधनाओं द्वारा मनुष्य के मन की वृत्ति, काम, क्रोध मोह इत्यादि विकारों से पूर्ण रीति उपराम तो हो नहीं सकती और बुद्धियोग मेरे साथ जुटाए बिना मन के विकल्पों और विकारों को भस्म करने के लिये अन्य किसी तरीके से शक्ति मिल नहीं सकती। इसलिये आज अनेक योग-पाठशालायें होते हुए भी भारतवासी दिन-प्रतिदिन अधिक ही विकारी, दु:खी और अशान्त होते जाते हैं, क्योंकि आत्मा ही को परमात्मा बताने वाले, अथवा परमात्मा को सर्वव्यापी मानने वाले कर्म-सन्यासियों, अथवा तत्व-योगियों ने मेरे निवासधाम, अर्थात् अचैतन्य ब्रह्मधाम के साथ योग लगाने की शिक्षा दे मनुष्यात्माओं को मुझसे बिल्कुल ही विमुख कर दिया है।
इसलिये, अब तुम अनुभवी वत्सों ही को दु:खी मनुष्यात्माओं पर उपकार करना चाहिये। उन्हें मेरे स्वरूप का परिचय देकर उनका रूहानी सम्बन्ध मेरे साथ जुटाने का शुभ-कत्र्तव्य तुम सच्चे ब्राह्मणों ही को करना है, क्योंकि कल्प-कल्प, क्रसंगम समयञ्ज ही ऐसी सुहावनी ऋतु है जबकि मुझ परमपिता परमात्मा के साथ तुम ब्राह्मण ही सब आत्माओं रूपी सजनियों का योग जुटाने के लिए निमित्त बने हुए हो। लोगों को बताना चाहिये कि क्रपरमात्मा तो सर्व आत्मा रूपी भक्तियों का भगवान, सजनियों का साजन, पतियों का पति अथवा बच्चों का अविनाशी बाप है। वह नाम-रूप से न्यारा व सर्वव्यापी नहीं है, न आत्मा ही परमात्मा है। उनसे पूछना चाहिए कि क्रक्रअगर आत्मा ही परमात्मा है, सब भगवान ही भगवान हैं तो फिर आत्मा को योग लगाने की आवश्यकता क्या है, वह योग लगावे ही किससे? क्या अपवित्र आत्मा स्वयं से योग लगावे?ञ्ज उन्हें सुनाना चाहिए कि क्रब्रह्मञ्ज महतत्व से योग जुटाने वाले सन्यासियों का मत भारत के क्रआदि सनातन देवी-देवता धर्म से अलग है। भारत के सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी जो जीवनमुक्त देवी-देवता हुए हैं, उन्होंने तो वह डबल-सिरताज देवी या देवता पद मुझ शिव परमात्मा ही से योगयुक्त होकर प्राप्त किया था। इस कारण ही इस योग को क्रसहज राजयोगञ्ज भी कहा जाता है, क्योंकि राजाओं का भी राजा बनाने वाले इस योग के लिए कोई हठ तथा यातनाओं की आवश्यकता नहीं है, बल्कि श्वासों-श्वास मुझ परमात्मा ही की अव्यभिचारी याद में रहने का पुरूषार्थ करना है।
परन्तु यह याद स्थिर तभी हो सकती है जब कोई मनुष्यात्मा देह के सब सम्बन्धों, धर्मों इत्यादि का आधार छोड़, मेरे साकार रूप द्वारा मेरे ही अर्पण हो, एक मेरी ही मत पर चल, एक मेरे बल और भरोसे पर निश्चिंत खड़ा रहे, क्योंकि जब तक किसी को कोई और आधार, बल अथवा भरोसा है, तब तक उसे मेरी ही निरन्तर याद रहे, अथवा श्वासों-श्वास मुझ ही के साथ बुद्धि योग जुटा रहे, यह हो नहीं सकता। सम्पूर्ण बुद्धियोग के लिए सम्पूर्ण सन्यासी बनना अर्थात् मेरी ही सेवा में तत्पर, मुझ ही का होकर मेरी आज्ञा पर चलना बिल्कुल आवश्यक है। इसके बिना मेरे सम्पूर्ण वर्से की प्राप्ति भी नहीं हो सकती, क्योंकि जो जितना मेरा बनता है, मैं भी उस अनुसार उनका बनता हँू।
यूँू तो सब मनुष्यात्मायें मुझको प्यारी हैं परन्तु जो मनुष्यात्मा मुझ पिता शिव पर जितनी बलिहार जाती है, जितनी कुर्बान होती है, मैं भी उस अनुसार ही उस पर अपना सब कुछ वार देता हँू। यह तो तुम समझ सकती हो कि जो मुझ एक ही के बल और एक ही के भरोसे पर जितना एक-टिक खड़ा है, मुझे भी सर्वस्व सहित उसी का ही होना होता है। इसलिये मनुष्यों को समझाना चाहिए कि सारी सृष्टि का मालिक, बेहद सम्पत्तिवान जो परमपिता शिव है वह सर्वव्यापी नहीं, वह तो ज्योतिर्बिन्दु है, सालिग्राम मनुष्यात्माओं के सृष्टि रूपी वृक्ष का अविनाशी बीजरूप है, सबका पारलौकिक पिता है, त्रिमूर्ति अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शंकर का भी रचयिता, निराकार यानी अव्यक्तमूर्त है। वह तो परलोक का निवासी, वैकुण्ठ का राज्य-भाग्य दिलाने वाला है। उन्हें समझाना चाहिए कि उस पिता परमात्मा की और उसकी रचना की, अथवा उसके मुक्तिधाम तथा जीवनमुक्तिधाम की निरन्तर याद में रहना ही, भारत का सर्व-प्राचीन, आदि सनातन रूहानी योग है।

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