परमात्म ऊर्जा

सेवा का सम्बन्ध अर्थात् त्याग और तपस्वी रूप। सच्ची सेवा के लक्षण यही त्याग और तपस्या है। ऐसे ही व्यवहार में भी डायरेक्शन प्रमाण निमित्त मात्र शरीर निर्वाह लेकिन मूल आधार आत्मा का निर्वाह, शरीर निर्वाह के पीछे आत्मा निर्वाह भूल नहीं जाना चाहिए। व्यवहार करते शरीर निर्वाह और आत्म निर्वाह दोनों का बैलेंस हो। नहीं तो व्यवहार माया जाल बन जायेगा। ऐसी जाल जो जितना बढ़ाते जायेंगे उतना फंसते जायेंगे। धन की वृद्धि करते हुए भी याद की विधि भूलनी नहीं चाहिए। याद की विधि और धन की वृद्धि दोनों साथ-साथ होनी चाहिए। धन की वृद्धि के पीछे विधि को छोड़ नहीं देना है। इसको कहा जाता है लौकिक स्थूल कर्म भी कर्मयोगी की स्टेज में परिवर्तन करो। सिर्फ कर्म करने वाले नहीं लेकिन कर्मयोगी हो।
कर्म अर्थात् व्यवहार योग अर्थात् परमार्थ। परमार्थ अर्थात् परमपिता की सेवा अर्थ कर रहे हैं। तो व्यवहार और परमार्थ दोनों साथ साथ रहें। इसको कहा जाता है श्रीमत पर चलने वाले कर्मयोगी। व्यवहार के समय परिवर्तन क्या करना है? मैं सिर्फ व्यवहारी नहीं लेकिन व्यवहारी और परमार्थी अर्थात् जो कर रहा हूँ वह ईश्वरीय सेवा अर्थ कर रहा हूँ। व्यवहारी और परमार्थी कम्बाइंड हूँ। यही परिवर्तन संकल्प सदा स्मृति में रहे तो मन और तन डबल कमाई करते रहेंगे। स्थूल धन भी आता रहेगा। और मन से अविनाशी धन भी जमा होता रहेगा। एक ही तन द्वारा एक ही समय मन और धन की डबल कमाई होती रहेगी। तो सदा यह याद रहे कि डबल कमाई करने वाला हूँ। इस ईश्वरीय सेवा में सदा निमित्त मात्र का मंत्र व करनहार की स्मृति का संकल्प सदा याद रहे। करावनहार भूले नहीं। तो सेवा में सदा निर्माण ही निर्माण करते रहेंगे। आगे चलो, आगे चल अनेक प्रकार के व्यक्ति और वैभव अनेक प्रकार की वस्तुओं से सम्पर्क करते हो। इसमें भी सदा व्यक्ति में व्यक्त भाव के बजाए आत्मिक भाव धारण करो। वस्तुओं व वैभवों में अनासक्त भाव धारण करो तो वैभव और वस्तु अनासक्त के आगे दासी के रूप में होगी और आसक्त भाव वाले के आगे चुम्बक की तरफ फंसाने वाली होगी। जो छुड़ाना चाहो तो भी छूट नहीं सकते। इसलिए व्यक्ति और वैभव में आत्म भाव और अनासक्त भाव का परिवर्तन करो।
कोई भी पुरानी दुनिया के आकर्षणमय दृश्य अल्पकाल के सुख के साधन यूज़ करते हो व देखते हो तो उन साधनों व दृश्य को देख कहाँ-कहाँ साधना को भूल साधन में आ जाते हो। साधनों के वशीभूत हो जाते हो। साधनों के आधार पर साधना – ऐसे समझो जैसे रेत के फाउंडेशन के ऊपर बिल्डिंग खड़ी कर रहे हो। उसका क्या हाल होगा? बार-बार हलचल में डगमग होंगे। गिरा कि गिरा यही हालत होगी। इसलिए यही परिवर्तन करो कि साधन विनाशी और साधना अविनाशी। विनाशी साधन के आधार पर अविनाशी साधना हो नहीं सकती। साधन निमित्त मात्र हैं, साधना निर्माण का आधार है। तो साधन को महत्त्व नहीं दो, साधना को महत्त्व दो। तो सदा ये समझो कि मैं सिद्धि स्वरूप हूँ न कि साधन स्वरूप। साधना सिद्धि को प्राप्त कराएगी। साधनों की आकर्षण में सिद्धि स्वरूप को नहीं भूल जाओ। हर लौकिक चीज़ को देख, लौकिक बातों को सुन, लौकिक दृश्य को देख, लौकिक को अलौकिक में परिवर्तन करो अर्थात् ज्ञान स्वरूप हो हर बात से ज्ञान उठाओ। बात में नहीं जाओ, ज्ञान में जाओ तो समझा, क्या परिवर्तन करना है!

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