विदेही तब बन सकेंगे जब यह सब कर्मेन्द्रियां कन्ट्रोल में हों। इस देह की कर्मेन्द्रियां मेरे को क्यों खींचती हैं? क्योंकि कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं है तो फिर विदेही कैसे बनेंगे? देह से न्यारा माना देह से कोई अलग तो नहीं हो जायेंगे। लेकिन कोई भी देह की कर्मेन्द्रियां हमको अपने तरफ खींचे नहीं, यह प्रैक्टिस ज़रूर चाहिए। नहीं तो अन्त में जब हालतें बहुत खराब होंगी, उस समय कन्ट्रोलिंग पॉवर अगर नहीं होगी तो कभी भी पास विद ऑनर नहीं हो सकते। और बाबा तो कहते हैं कि अन्त में तो एक सेकण्ड का पेपर होगा- स्मृतिलब्ध:, नष्टोमोहा। कर्मेन्द्रियों से सुनने, देखने, बोलने और सोचने का भी तो मोह होता है। उसे भी तो बॉडी-कॉन्शियस का ही एक हिस्सा कहेंगे। नष्टोमोहा माना सम्बन्धियों या वैभवों से, चीज़ों से ज़रा भी मोह नहीं। अपने शरीर की कोई भी कर्मेन्द्रियां अगर खींचती हैं माना मोह है, उससे प्यार है। तो नष्टोमोहा स्मृति स्वरूप कैसे होंगे? तो इसके लिए एक सहज अभ्यास है कि हम चाहे कितने भी बिज़ी रहते हैं लेकिन मैं आत्मा मालिक इन कर्मेन्द्रियों से यह काम करा रही हूँ। जैसे कोई डायरेक्टर, बॉस होता है – वह अपने ही कमरे में एक कुर्सी पर बैठा रहता है। परन्तु उसको यह नैचुरल याद रहता है कि मैं डायरेक्टर हूँ, यह कर्मचारी जो भी मेरे साथी हैं उनसे कराने वाला हूँ। मैं जिम्मेवार हूँ। यह तो याद रहता है ना! ऐसे यह भी याद रहे कि मैं आत्मा करावनहार हूँ और यह कर्मेन्द्रियां जो हैं मेरी कर्मचारी हैं यानी सारथी हैं। मददगार तो यह कर्मेन्द्रियां ही हैं। लेकिन मैं मालिक हूँ, कराने वाला हूँ। मालिक कहने से आत्मा अलग हो जाती है, शरीर अलग हो जाता है। यह प्रैक्टिस हम बीच-बीच में काम करते भी करें, यह नशा रखें कि मैं आत्मा करावनहार हूँ या मैं आत्मा मालिक हूँ। मालिकपन आयेगा तो न्यारापन ऑटोमेटिक होगा। कराने वाला मैं हूँ और यह करने वाली है तो डायरेक्श्न से ज़रूर चलेंगे। यदि मालिक को मालिकपन ही याद नहीं होगा तो सर्वेन्ट मानेगा कैसे! कम्पनी के डायरेक्टर जो होते हैं वह अपने वर्कर्स को कितना बिज़ी रखने की कोशिश करते हैं, तो मैं भी मालिक हूँ इन कर्मेन्द्रियों को क्यों नहीं बिज़ी रखूँ!
दूसरा मैं मालिक हूँ तो विदेही यानी देह से न्यारे का अभ्यास नैचुरल होता जाता है। कर्म करते हुए यह अभ्यास करते रहो तो आपका लिंक जुटा रहेगा, और लिंक जुटा हुआ होने के कारण फिर जब आपको फुर्सत मिले उस समय आप विदेही बन जाओ। लेकिन विदेही का मतलब यह नहीं है कि चींटी ऊपर चढ़े तो पता ही नहीं पड़े। लेकिन जैसे कोई बहुत डीप विचार में होते हैं, कोई बात में बहुत रूचि होती है, सुनने की, देखने की तो उस समय बाहर कुछ भी होता रहे फिर भी हमारा अटेन्शन नहीं जाता है। समझो मैं खाना खा रही हूँ और मेरा कुछ विचार चल रहा है, जिसमें मेरा पूरा ध्यान उसी विचार में है तो खाना तो मैं मुख में ही डाल रही हूँ लेकिन अगर कोई मेरे से पूछे कि आज नमक ठीक है? तो आप जवाब नहीं दे सकेंगे क्योंकि आपका विचार जो है वह दूसरे तरफ इतना डीप था जो आपने खाया भी लेकिन खाते हुए भी आप न्यारे रहे।
ऐसे ही अगर हम देह में होते हुए अपने ही मनन चिंतन में हैं, मालिकपने के नशे में हैं तो मुझे यह कर्मेन्द्रियां क्यों आकर्षित करेंगी? नहीं कर सकती। यह अभ्यास बहुत सहज है क्योंकि इसमें काम को छोडऩे की बात नहीं है। काम करते हुए मालिकपन चाहिए। तो कर्म भी अच्छा होगा और विदेहीपन का अभ्यास भी पक्का होता जायेगा।