आप देखेंगे तो मुख्यत: सात ऐसे कारण हैं जो मनुष्य के मन में प्रेम, प्यार अथवा आकर्षण पैदा करने वाले होते हैं। वैसे तो बहुत कारण हो सकते हैं लेकिन आप भी सोचें कि प्रेम पैदा करने वाले ऐसे कौन से कारण हो सकते हैं। तो आपके मन में क्या आ रहा है? हाँ… यूँ तो… जहाँ प्राप्ति होती है वहाँ मनुष्य का मन चला जाता है। और सोचो, जो सर्वमान्य हो और व्यवहारिक भी। हम आपके इस प्रश्न की उत्सुकता को समाप्त करने के लिए बता ही देते हैं…।
पहला, सम्बन्ध। दूसरा, सौंदर्य। तीसरा, सुखदायक व्यक्ति। चौथा, सहयोगी व सहकारी। पाँचवा, सहानुभूति। छठा, रचना। सातवाँ, गुणवान व्यक्ति। ठीक है ना! मन की उत्सुकता खत्म हो गई! अब हम एक-एक को विस्तृत रूप से समझते हैं।
जहाँ सम्बन्ध हो, वहाँ प्यार अथवा प्रेम होना स्वाभाविक है ही। माता-पुत्र, पति-पत्नी, दोस्त, भाई-भाई, ये सभी सम्बन्ध ही हैं जो प्रेम के विभिन्न प्रकारान्तर अथवा रूपान्तर पर टिके हुए हैं। कहावत भी है, ‘अपने और परायों में सदा अंतर होता है, ब्लड इज़ थिकर देन वॉटर।’ जिनसे मनुष्य का सम्बन्ध हो, उन्हीं की याद उसे आया करती है और उनके प्रति ही उसका थोड़ा बहुत समर्पण भाव रहता है। अत: यदि यह बात मनुष्य की बुद्धि में स्पष्टत: बैठ जाये कि परमात्मा तो आत्मा के माता-पिता, सखा-बंधु, नहीं-नहीं बल्कि सर्वस्व हैं, तब तो मनुष्य का परमात्मा से सौ गुणा प्यार होगा। पिता-पुत्र में, सखा-सखा में, भाई-बहन में, सजनी और साजन में जो प्यार होता है तथा अन्यान्य सभी सम्बन्धों के प्यार को यदि इकट्ठा किया जाये तो मनुष्य को उससे भी अधिक प्यार परमात्मा से हो जायेगा। क्योंकि सांसारिक लोगों के साथ तो हमारे दैहिक, नश्वर अथवा एकांगी नाते हैं जबकि आत्मा का सच्चा मीत तो एक परमात्मा है।
सम्बन्ध से अतिरिक्त सौंदर्य भी मनुष्य के मन में प्यार पैदा करता है। यह सौंदर्य रूप-रंग का भी हो सकता है, चरित्र का भी और किसी अन्य कला(वाद्य कला, नृत्य कला) से संबंधित भी। परंतु स्थायी एवं सर्व प्रकार का सौंदर्य तो एक परमात्मा ही में है। संसार में जब कोई व्यक्ति सुंदर मालूम होता है, तो मानव का मन उसे पाने, अपनाने या स्वयं ही उसका हो जाने की चेष्टा करता है व उसके रूप पर मुग्ध हो जाता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य को यह ज्ञात हो जाये कि संसार के सारे सौंदर्य का सार एक परमात्मा ही में है और उसके रूप को काल, कष्ट, कुभाव एवं काम छूते तक नहीं, तो वे उस क्रमनमोहनञ्ज के रूप-लावण्य को जानकर उससे प्रीति किये बिना नहीं रह सकेंगे। खेद की बात है कि मनुष्य सांसारिक सौंदर्य पर लट्टू होकर अपना सर्वस्व लुटा देता है अथवा अपने जीवन को भी भेंट कर देता है।
सुखदायक, सहयोगी तथा सहानुभूति वाला
जैसे सुंदर व्यक्ति एवं वस्तु प्यारे होते हैं, वैसे ही सुखदायक व्यक्ति, सहयोगी तथा सहकारी के प्रति भी मनुष्य के मन में प्यार पैदा होता है। यदि कोई व्यक्ति आड़े समय में हमारा हाथ बटाये, डूबे हुए को निकाल ले, मरते हुए को बचा ले, किसी की भूख-प्यास मिटा दे, किसी भी प्रकार की सहायता करे अथवा सहानुभूति करे एवं मन का हाल लेकर मदद करे तो उसके प्रति मनुष्य स्वयं को कृतकृत्य मानता है, तथा उस पर अपना जीवन भी न्यौछावर करने के लिए तैयार हो जाता है। ठीक इसी प्रकार यदि मनुष्य को ज्ञात हो कि कलियुग के अंत में जब सभी की जीवन-नाव, विषय-नाव, विषय-विकारों में डूब रही होती है, जब सबका आत्मन दु:ख-दरिद्रता अथवा विकार-तृष्णा से पीडि़त होकर मर-सा रहा होता है, तब परमपिता परमात्मा स्वयं अवतरित होकर जीवन-नैया को उबारते और योग तथा सहयोग द्वारा मुक्ति एवं जीवनमुक्ति देते हैं। तो ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं हो सकता जिसकी प्रीति प्रभु से न जुटे।
रचना और गुणवान के साथ प्रीति
हम उपरोक्त पाँच कारणों के अतिरिक्त बता आयें हैं लेकिन अब छठा कारण होता है रचता और रचना का सम्बन्ध। रचना का अपने रचयिता से प्यार होता ही है। यही तो कारण है कि पुत्र का अपने माता-पिता से, पत्नी का पति से तथा मनुष्य को अपने मकान, सामान तथा अन्य कृतियों एवं रचनाओं से भी प्यार होता है। ठीक इसी प्रकार यदि मनुष्य की वृत्ति का दिशा-निर्देशन करते हुए कलियुगी बच्चे की बजाय सतयुगी श्रीकृष्ण के समान बच्चा पाने की चेष्टा करे अथवा सतयुग में नारायण जैसा पति पाने का मनोरथ तो इस कलियुगी, अपवित्र गृहस्थी से उसका मोह नष्ट हो जायेगा और उसकी प्रीति परमात्मा से जुट जायेगी, क्योंकि श्रीकृष्ण के समान सम्बन्धी तो तभी मिल सकते हैं जब मनुष्य परमात्मा से योगयुक्त होकर मनुष्य से देवता बने।
इसके अलावा हम देखते हैं कि मनुष्य का मन स्वत: ही गुणवान व्यक्तियों की ओर आकर्षित होता है। जिसका स्वभाव सरल एवं मधुर हो, जो नम्रचित्त एवं सदा हर्षितमुख हो, जो संतोषी एवं स्नेही हो, उससे हमारा भी स्नेह होता है। इसके विपरीत जो असहिष्णु एवं आलसी हो या निंदा एवं चुगली करने वाला हो, उससे हमारा भी प्यार समाप्त होता है। अत: मनुष्य यदि इस बात को ध्यान में रखे कि परमात्मा तो सर्व गुणों का असीम भंडार है, तो उससे मन की प्रीति जुडऩा स्वाभाविक है। आप भी और कारण सोच कर अपनी बुद्धि को इस विनाशी संसार से व सम्बन्ध से निकाल कर परमात्म प्रेम के सम्बन्ध को अपनाकर अपने जीवन को धन्य-धन्य बना सकते हैं।