मनुष्य सुख से ही बना है…

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आज मनुष्य की स्थिति को हम जब बहुत ध्यान से देखते हैं तो पाते कि ऐसी बहुत सारी बातें हैं जिसमें मनुष्य अपने आप को उलझा हुआ देखता है। लेकिन अगर इसको एक समानान्तर तरीके से देखा जाये तो हम पाते हैं कि मनुष्य निरन्तर सुख ही चाहता है। इसको हम कुछ उदाहरणों से देखते हैं, जैसे – अन्तिम अवस्था होती है, बिल्कुल मरने वाली स्थिति होती है बिल्कुल ही उसकी कर्मेन्द्रियां काम नहीं कर रही होती हैं, बिल्कुल ही वो शरीर छोड़कर जाने वाली स्थिति में होता है तो भी वो जीना चाहता है। क्यों जीना चाहता है, क्योंकि उसको अपने आपसे बहुत प्रेम है। उसका इस प्रकृति से बहुत प्रेम है। हालांकि उसका स्वरूप बदल गया लगाव के रूप में लेकिन आज हम उसको थोड़ा-सा इस पन्ने को दूसरे तरीके से समझने की कोशिश करते हैं, दूसरे पहलू की तरह से इसको समझते हैं कि मनुष्य का लगाव, जो आज बदल गया लगाव के रूप में लेकिन उसका स्वयं से इतना प्रेम है, रहने से इतना प्रेम है कि वो छोड़कर जाना नहीं चाहता।
इसी तरह मनुष्य प्रेम पाने के लिए या कहें जीने के लिए, सुख से रहने के लिए शादी करता है। बच्चे की अभिलाषा करता है। धन-धान्य की अभिलाषा करता है, इच्छा रखता है। लेकिन बहुत दिन तक उससे सुख लेने की कोशिश करता है। लेकिन जब फिर उन्हीं से कोई तकलीफ होती है, परेशानी होती है, दु:ख होता, दर्द होता है तो उसको फिर से छोडऩे की इच्छा होती है। तो छोडऩे की इच्छा भी क्रसुख की निशानीञ्ज और लेने की इच्छा भी क्रसुख की निशानीञ्ज है। सुख लेने का भाव। मनुष्य का नेचर देखो सुख लेना है। ऐसे ही जब वो कभी संसार में है और एक समय है कि उसको पूरा संसार चाहिए, सब कुछ चाहिए। देखिए उन्हीं से तकलीफ हुई तो मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। ये क्या हमारे लिए प्रकट करता है कि हमारा नेचर सुख लेना है। मनुष्य जब कभी आत्महत्या का विचार भी करता है तो आत्महत्या भी प्रेम को ही दर्शाता है। आत्म प्रेम को ही लेकर आगे बढ़ता है। मतलब जब बाहरी दुनिया से कोई तकलीफ आती है तो उसको कोई नहीं समझ पाता, तो अज्ञानता वश वो मन, बुद्धि को भी खत्म कर देता है। लेकिन उसको ये नहीं पता है कि उसको खत्म करने से हमारे अन्दर के जो थॉट्स(विचार) हैं, हमारे अन्दर की जो फीलिंग्स हैं, वो नहीं खत्म होती। तो निरन्तर मनुष्य भाग रहा है। अब इसको अगर एक तरह से देखा जाये कि अगर हमारा स्वरूप सुख नहीं होता, हमारा स्वरूप प्रेम नहीं होता। हमारा स्वरूप अगर दु:ख होता, दु:ख देना, दु:ख लेना तो हम निरन्तर उसकी तलाश के लिए कहीं जाते नहीं घर में बैठे ही सबकुछ मिल जाता है, लेकिन जैसे ही कोई थोड़ी तकलीफ होती है तो चाहे हम मंदिर जाते हैं, चाहे किसी भी स्थान पर जाते हैं, कहीं किसी से मिलने जाते हैं, क्यों? क्योंकि सुख मिले।
हमारा स्वरूप सुख है। इसीलिए छोटे-छोटे सुखों की तलाश निरन्तर जो मनुष्य पूरे जीवन करता है। वो हमको सिद्ध करता है कि वह उसी आनन्द की खोज में वो निरन्तर भटकता रहता है। तो जो व्यक्ति जिस चीज़ से बना होता है। ये लाईन हमारे जीवन के लिए बहुत ही कारगर है कि क्रजो व्यक्ति जिस चीज़ से बना हैञ्ज वो उसी की तलाश पूरे जीवन करता है। क्योंकि हम सुख से बने हैं, प्रेम से बने हैं तो निरन्तर हम उस सुख और प्रेम को कहीं न कहीं ढूढ़ते रहते हैं। आज के दौर में ले लो – आज बगावत करता है कोई भी छोटा बच्चा या बच्ची या कोई भी ऐसा परिवार अपने परिवार से, अपने माँ-बाप से, अपने समाज से, संसार से बगावत करता है। एक अन्धप्रेम के चक्कर में या एक दैहिक प्रेम के चक्कर में। चाहे वो प्रेम दैहिक ही क्यों न हो लेकिन फिर भी वो बगावत कर रहा है। कारण? सुख चाहिए। कारण? मुक्ति चाहिए। सुख, मुक्ति में ही है, बन्धन मुक्त होने में ही है। लेकिन आज जिस वो चीज़ में वो बन्धता है क्योंकि वो इस दुनिया की है, नश्वर है फिर थोड़े दिन बात किसी और सुख की तलाश होती है। इसलिए क्रअज्ञानताक्र ही है सिर्फ एक पर्दा जो हमको इन सारे बन्धनों में जकड़े हुए है। नहीं तो थोड़ा-सा भी समझ आ जाये कि सुख, प्रेम हमारा एक स्वरूप है, हमारे अन्दर की स्थिति है।
तो हम बाहर भी सबके साथ रहेंगे, सबके साथ जीयेंगे। लेकिन कोई भी किसी भी चीज़ के लिए वजह नहीं होगा। खुशी की वजह, शान्ति की वजह, प्रेम की वजह। सिर्फ रहेंगे, जीयेंगे और आगे बढ़ेंगे। इसी का ज्ञान हम दुनिया भर में दे रहे हैं, सबको समझा रहे हैं कि आपको इस समाज में रहना है, सबके साथ रहना है। लेकिन कोई भी सुख, कोई भी प्रेम, कोई भी आनन्द, बाहरी चीज़ों, बाहरी दुनिया में जो आप भटक रहे हैं, दौड़ रहे हैं, सम्भालने के लिए, लेने के लिए, पाने के लिए। वहाँ कहीं जाने की आवश्यकता नहीं। आप उसको अपने अन्दर महसूस कर सकते हैं। डिपेंडेन्सी खत्म हो जायेगी।
तो वो डिपेंडेन्सी कैसे खत्म हो? आत्मनिर्भर, आत्म प्रेम कैसे हो? आत्मनिर्भरता प्रेम में कैसे आये जिससे पूरे जीवन हम किसी के होने या न होने की वजह से दु:खी हों तो वो अज्ञानता ही कहा जाता है। तो कोई हो या न हो, कोई जीये या न जीये, कोई रहे या न रहे लेकिन मैं निरन्तर उसी स्वरूप में हँू। उसी आनन्द की स्थिति में ही हँू। यही ज्ञान है, यही समझ है, यही गहराई है। इसलिए क्रमनुष्य सुख से बना हैञ्ज और निरन्तर सुख से ही आगे बढ़ रहा है। तो इस तरह से आप अपने आप को समझा सकते हैं, देख सकते हैं। आज की युवा पीढ़ी भी इसको समझ सकती है। और युवा पीढ़ी सबसे ज्य़ादा क्यों समझें? क्योंकि सबसे ज्य़ादा इस अन्धदौड़ में शामिल है इसलिए टेंशन है, इसलिए परेशानी है। तो छोड़ें उसे, समझें इसे और आगे बढ़ें।

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