मीठे बाबा हमें सदैव बेहद सेवाओं में कभी कहां, कभी कहाँ भेजते ही रहे। अनेक सेन्टर खोलने के निमित्त बनाया। कभी दिल्ली तो कभी मुम्बई, कभी कोलकाता, तो कभी बिहार भेजते थे। विदेश में जापान आदि की भी अचानक यात्रा करायी। सदैव बाबा का यह वरदान था कि बच्ची, हर समय एवररेडी रहना। बाबा का एक इशारा आता था कि तुम्हें यहाँ से वहाँ जाना है। मैं कहती थी, जी बाबा। बाबा रोज़ बेहद सेवा की कुछ न कुछ प्रेरणा भी देते थे और आज्ञा भी करते थे। अठारह जनवरी से पहले मैं गामदेवी मुम्बई में रहती थी। थोड़े दिन पहले ही मुम्बई से बाबा के पास पार्टी लेकर आयी थी। पार्टी लेकर चली गयी। फिर और एक छोटी पार्टी लेकर दो दिन के बाद मधुबन आयी। उस समय दीदी इलाहाबाद के कुम्भ मेले में गयी थी। चौदह जनवरी मकर सक्रांति पर वहाँ मेला लगता है। उस समय विशेष अर्धकुंभ मेला था। जब मैं यहाँ(मधुबन) आयी तो बाबा ने कहा, बच्ची, तुम अभी आयी हो, दो-चार दिन रूक जाना। बाबा कभी भी मुझे दो दिन से ज्य़ादा नहीं रहने देते थे। कभी मैं कहती थी, बाबा, मैं चार-पाँच दिन रहूँगी, तो बाबा कहते थे, क्यों, कोई सेवा नहीं है क्या? क्यों यहाँ रहना है? नहीं, सेवा पर चले जाओ, बादल भरके जाओ और वहाँ बरसो। जब बाबा ने खुद कहा कि दो-चार दिन रह जाओ तो मैंने कहा, जी बाबा। मैं आयी थी 14 जनवरी को और जाना था 16 जनवरी को। बाबा ने कहा, बच्ची,पार्टी को जाने दो, दीदी भी नहीं है, थोड़े दिन रह जाओ। उस समय मधुबन की सारी कारोबार दीदी ही सम्भालती थी। बाबा हर बात में हम बच्चों को अनुभवी बनाते थे।
अठारह जनवरी की सुबह बाबा ने मुरली नहीं चलायी। सवेरे से ही बाबा का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। यज्ञ के इतिहास में बाबा के तपस्वी जीवन में केवल यह एक ही दिन था जब बाबा ने प्रात: की मुरली नहीं चलायी थी परन्तु वे उस दिन सर्वोच्च स्थिति में स्थित थे। जब हमने डॉक्टर को बुलाने के लिए कहा तो बाबा ने उसी मस्ती में कहा था कि क्रक्रबच्ची, डॉक्टर क्या करेगा, मैं तो सुप्रीम सर्जन से बातें कर रहा हूँ।ञ्जञ्ज उस दिन बाबा ने कहा, लाओ, आज बच्चों को पत्र लिखँू। बाबा के हाथ में भी वह लाल कलम, जिसके सुंदर अक्षर सभी के दिलों को खींच लेते थे। बाबा ने सभी पत्रों के उत्तर दिये। बाबा ने लिखा था, क्रक्रबच्चे, सदा एक मत होकर चलना है, एक की याद में रहना और सदा शक्तियों को आगे रखना है तब ही सेवा में सफलता होगी।ञ्जञ्ज ये अंतिम पत्र कई बच्चों ने अपने दिल में छुपा कर रख लिये थे। कितनी सौभाग्यशाली थीं वे आत्माएं जिन्हें स्वयं सृष्टि रचयिता ब्रह्मा ने अपने हस्तों से पत्र लिखे थे। दिन में बाबा अंगुली पकड़कर मुझे मधुबन का आँगन घुमाते रहे। उस समय यह ट्रेनिंग सेंटर बन रहा था, बाबा ने दिन का भोजन कर विश्राम भी किया। शाम के समय कोई पार्टी आयी थी, बाबा उनसे भी मिले। फिर उस दिन बाबा ने कहा, आज रात का भोजन थोड़ा जल्दी कर देते हैं। उस दिन बाबा ने रात 7:30 पर भोजन किया। वैसे तो रोज़ 8:30 बजे भोजन करते थे। भोजन के बाद बाबा रात्रि क्लास में भी आये। क्लास में बाबा ने शिक्षाओं भरी मधुर मुरली सुनायी।
अच्छा बच्चे विदाई
उस दिन बाबा आठ बजे ही क्लास में आये और साकार रूप के वे अंतिम महावाक्य तो दिल में समाने जैसे हैं। बाबा ने कहा था – ”बच्चे, सिमर सिमर सुख पाओ, कलह-कलेश मिटें सब तन के, जीवनमुक्ति पाओ।” ”बच्चे, निन्दा हमारी जो करे, मित्र हमारा सोई। तुम्हें किसी की भी निन्दा नहीं करनी और किसी से वैर विरोध भी नहीं रखना।”
इस प्रकार याद की यात्रा पर बल देते हुए यज्ञपिता बाबा खड़े होकर गेट की ओर चले और फिर गेट पर रूक गये और बोले, ”बच्चे, निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी बनो। जैसे बेहद का बाप सम्पूर्ण व सदा निर्विकारी है, सदा निराकार है, निरहंकारी है वैसे ही बच्चों को भी बनना है।” फिर उस अंतिम घड़ी के पूर्व बाबा के मुख से ये शब्द निकले, क्रक्रअच्छा बच्चे, विदाई।”